बुधवार, 5 दिसंबर 2012

लोगों को गैस किल्लत से निजात दिलवाएगा कृषि विभाग


अनुदान पर दी जाएंगी बायोगैस बनाने वाली रेडीमेड टैंकियां

नरेंद्र कुंडू 
जींद। आम आदमी को गैस की किल्लत से छुटकारा दिलवाने के लिए कृषि विभाग ने खास योजना तैयार की है। विभाग द्वारा नैशनल बायोगैस मैकरो मैनेजमैंट प्रोग्रमा के तहत अब आम आदमी को बायोगैस के प्रति आकॢषत करने के लिए सबसिडी पर बायोगैस की रेडीमेड टैंकियां उपलब्ध करवाई जाएंगी। इस 
टैंकी की खास बात यह है कि गोबर व अन्य वैस्ट से गैस बनाने के वाले सभी उपकरण इस टैंकी के अंदर ही स्थापित किए गए हैं और इसे लगाने के लिए ज्यादा जगह की जरूरत भी नहीं पड़ती है। विभाग की इस योजना के तहत 20 सुत्रीय कार्यक्रम के तहत जिले में 90 टैंकियां अनुदान पर देने का टारगेट रखा गया है। 

पहले सरकार द्वारा घरेलू वैस्ट व गोबर का सही उपयोग करने के लिए किसानों को दीनबंधू बायोगैस प्लांट लगाने के लिए प्रेरित किया जाता था लेकिन इन प्लांटों के निर्माण में खुदाई, चिनाई, लेबर व निर्माण के लिए ज्यादा जगह की जरूरत होने के कारण सरकार की यह योजना लंबी रेस का घोड़ा नहीं बन पाई। इन बायोगैस प्लांटों के निर्माण में झंझटों को देखते हुए किसानों ने सरकार की इस योजना में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। क्योंकि इन बायोगैस प्लांटों के निर्माण के बाद भी इनमें गैस लिकेज व साफ-सफाई का ज्यादा झंझट रहता था। अब कृषि विभाग ने किसानों को गैस किल्लत से छुटकारा दिलवाने व आम आदमी को भी बायोगैस प्लांटों के प्रति अकर्षित करने के लिए नैशनल बायोगैस मैकरो मैनेजमैंट प्रोग्राम के तहत बायोगैस बनाने वाली रेडीमेड टैंकियां देने की योजना बनाई है। अधिक से अधिक लोगों को इस योजना के प्रति आकर्षित करने के लिए विभाग द्वारा जिले में 90 बायोगैस वाली यह टैकियां अनुदान पर दी जाएंगी। विभागीय अधिकारियों की मानें तो एक टैंकी की कीमत 32 हजार रुपए है। विभाग द्वारा एक टैंकी पर किसानों को 8 हजार रुपए की सबसिडी दी जाएगी। 
 कृषि यांत्रिकी विभाग के प्रांगण में रखी टैंकी।

किसानों को झंझटों से मिलेगा छुटकारा

विभाग द्वारा किसानों को 2 क्यूबिक मीटर की क्षमता वाली टैंकियां सबसिडी पर दी जा रही हैं। इस टैंकी की खास बात यह है कि गोबर व अन्य वैस्ट से गैस बनाने के लिए जरूरी सभी यंत्र इस टैंकी के अंदर ही फिट हैं। इस टैंकी को रखने के लिए ज्यादा जगह की जरूरत नहीं पड़ी,जबकि दीनबंधू बायोगैस प्लांटों को लगाने के लिए किसानों को चिनाई, मिस्त्री, लेबर व अन्य झंझटों का सामना करना पड़ता है और इन प्लांटों के निर्माण के बाद भी किसानों के सामने गैस लिकेज जैसी समस्याएं आती रहती थी। इसके अलावा इन प्लांटों की साफ-सफाई का झंझट भी रहता था लेकिन अब विभाग द्वारा किसानों को अनुदान पर दी जाने वाली इन रेडीमेड टैंकियों में चिनाई, लेबर, मिस्त्री व साफ-सफाई का सारा झंझट खत्म हो जाएगा। किसान कम जगह में इसे आसानी से स्थापित कर सकेंगे और जरूरत पडऩे पर इसे एक जगह से दूसरे स्थान पर भी आसानी से बदला जा सकेगा।   

लैटरिन अटैच करवाने पर मिलेगी 1 हजार की अलग से सबसिडी

कृषि विभाग द्वारा किसानों को अनुदान पर दी जाने वाली रेडीमेड टैंकी की कीमत 32 हजार रुपए है तथा विभाग इस टैंकी पर किसान को 8 हजार रुपए की सबसिडी देगा। इसके अलावा जो किसान इस टैंकी के साथ अपने घर की लैटरिन अटैच करवाएगा उसे 1 हजार रुपए की सबसिडी अलग से दी जाएगी। 

किसानों के लिए कारगर सिद्ध होगी योजना

कृषि यांत्रिकी विभाग के सहायक कृषि इंजीनियर जिले सिंह वर्मा ने बताया कि विभाग की यह योजना किसानों के लिए काफी कारगर सिद्ध होगी। क्योंकि इन टैंकियों के निर्माण व रखरखाव का काम काफी आसान है। किसान इसे अपनी जरूरत के अनुसार एक जगह से दूसरी जगह पर भी स्थानांतरीत कर सकते हैं। इस टैंक में गैस बनाने के लिए किसान को ज्यादा वैस्ट की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। किसान को इसके लिए प्रति दिन सिर्फ 2 किलो वैस्ट की जरूरत पड़ेगी। 



किसानों के लिए मददगार साबित नहीं हो रहे हैं पॉली हाऊस


मार्कीटिंग की व्यवस्था न होने के कारण किसानों को नहीं मिल रहे हैं उत्पादों के अच्छे भाव

नरेंद्र कुंडू 
जींद। सरकार द्वारा किसानों को परम्परागत खेती से हटाकर आधुनिक खेती की तरफ आकर्षित करने के लिए बागवानी विभाग के माध्यम से अनुदान पर पॉली हाऊस लगाने के लिए शुरू की गई योजना को मार्कीट के अभाव के कारण करारा झटका लग रहा है। बागवानी विभाग ने पॉली हाऊस में बेमौसमी सब्जियां उगाकर अच्छी आमदनी लेने के लिए किसानों को ऊंचे सपने तो दिखा दिए लेकिन विभाग द्वारा सब्जियों की बिक्री के लिए उचित व्यवस्था नहीं करने के कारण किसानों के इन सपनों पर कुछ ही समय में ग्रहण लग गया है। बागवानी विभाग द्वारा किसानों के लाखों रुपए खर्च करवाकर पॉली हाऊस तो खड़े करवा दिए लेकिन लाखों रुपए खर्च करने के बावजूद भी यह पॉली हाऊस किसानों के लिए मददगार साबित नहीं हो पा रहे हैं। विभाग द्वारा सब्जियों की मार्कीटिंग की उचित व्यवस्था नहीं किए जाने के कारण किसानों को महंगे भाव की सब्जियां मजबूरन कौडिय़ों के भाव बेचनी पड़ रही हैं। किसानों द्वारा विभाग के अधिकारियों के पास अलग से मार्कीटिंग की व्यवस्था की बार-बार गुहार लगाने के बावजूद भी अधिकारी इस ओर से अपने हाथ पीछे खींच रहे हैं। इस प्रकार अधिकारियों की बेरूखी के कारण अब पॉली हाऊस भी किसानों के लिए घाटे का सौदा साबित हो रहे हैं।

सब्जियों के नहीं मिल रहे हैं अच्छे भाव

अलेवा के किसान जोगेंद्र ने बताया कि घरौंडा स्थित उत्कृष्ट केंद्र के अधिकारियों की मानकर उसने अपने पॉली हाऊस में अंजलि यैलो व आदित्यी रैल किस्म की शिमला मिर्च की फसल तैयार की थी। उत्कृष्ट केंद्र के अधिकारियों ने इस फसल के लिए उसे प्रेरित किया था और उसे बताया गया था कि यह बेमौसमी फसल है और फसल तैयार होने के बाद मार्कीट में किसानों को इसके 135 रुपए प्रति किलो के हिसाब से भाव मिलेंगे। लेकिन उनकी इस फसल के साथ ही हिमाचल से भी शिमला मिर्चों की सप्लाई शुरू हो चुकी है। इस कारण उनकी उन्हें उनकी फसल के अच्छे भाव नहीं मिल पा रहे हैं। 135 रुपए प्रति किलो की उनकी यह सब्जी अब मार्कीट में 8 रुपए किलो के भाव बिक रही है। इसके अलावा पॉली हाऊस में तैयार किया गया टमाटर भी सिर्फ 208 रुपए प्रति करेट बिक रहा है। जोगेंद्र ने बताया कि इस फसल पर उसके लगभग 12 हजार रुपए खर्च हुए हैं लेकिन अभी तक इससे उसे सिर्फ 4 हजार रुपए की आमदनी ही हुई। जबकि बिना कीटनाशक व न्यूनतम उर्वकों के प्रयोग के बावजूद भी उसकी एक एकड़ की कपास की फसल 70 हजार व धान की पी.आर. की फसल से 35 हजार की आमदनी हुई है।
 पॉली हाऊस में सब्जियां दिखाते किसान।

मार्कीटिंग की नहीं है कोई व्यवस्था

पॉली हाऊस से जुड़े किसानों की मानें तो बागवानी विभाग द्वारा जिले में कहीं भी पॉली हाऊस में तैयार सब्जियों की बिक्री के लिए स्पेशल मंडी की व्यवस्था नहीं है। इसलिए उन्हें अपनी फसल बेचने के लिए दूसरे जिलों का रूख करना पड़ रहा है। इससे उन पर ट्रांसपोर्ट का अतिरिक्त खर्च तो पड़ता ही है लेकिन वहां भी उन्हें फसलों के अच्छे भाव नहीं मिल पा रहे हैं। किसानों का कहना है कि सब्जियों के अच्छे भाव नहीं मिलने के कारण पॉली हाऊस में फसल तैयार करने पर उन्होंने जो खर्च किया है उनका वह खर्च भी पूरा नहीं हो पा रहा है। 

बैट्री चालित मोबाइल वैन भी हुई ठप्प

किसानों को पॉली हाऊस में तैयार उत्पादों को शहर में बेचने के लिए सरकार द्वारा जिले में ट्रायल पर एक बैट्री से चलने वाली ए.सी. मोबाइल वैन चलाई गई थी। ताकि किसान शहरों में जाकर अच्छे रेटों पर अपने उत्पाद बेच सकें। इस वैन की कीमत लगभग एक लाख 40 हजार रुपए थी। लेकिन इस मोबाइल वैन को शुरू हुए अभी ठीक से एक माह भी नहीं हुआ था कि ट्रायल पर चलने वाली यह वैन भी जवाब दे गई। लाखों रुपए कीमत की यह वैन अब कंडम हालात में खड़ी है। 
कंडम अवस्था में खड़ी बैट्री चालित ए.सी. मोबाइल वैन।

किसान खुद तैयार करें अपनी मार्कीट

प्रगतिशील किसान राजबीर कटारिया ने कहा कि मार्कीटिंग की कमी के कारण किसानों को पॉली हाऊस में तैयार उत्पादों के अच्छे भाव नहीं मिल पाते हैं। कटारिया ने कहा कि किसानों को अगर पॉली हाऊस में तैयार उत्पादों के अच्छे भाव लेने हैं तो उन्हें इसके लिए खुद ही मार्कीटिंग की व्यवस्था करनी पड़ेगी। बिना मार्कीट के फसलों के अच्छे भाव मिलने संभव नहीं है। कटारिया ने कहा कि किसानों को अपने उत्पादों को खुद बेचने में किसी प्रकार की शर्म महसूस नहीं करनी चाहिए। 

560 एस.क्यू. मीटर में शिमला मिर्च की फसल पर हुए खर्च का विवरण
मद का नाम खर्च का विवरण

शिमला मिर्च की पौध 3200 रुपए
पौध लाने व लेबर खर्च 1700 रुपए
सुतली व लेबर खर्च 3700 रुपए
खाद 900 रुपए
कङ्क्षटग 400 रुपए
स्प्रे 450 रुपए
कीटनाशक व फफुंदनाशक 900 रुपए
पालीथिन 400 रुपए
कुल  खर्च            11,650 रुपए
नोट इसके अलावा सब्जियों की बिक्री के लिए ट्रांसपोर्ट खर्च अलग है।


  


अब सहज व सुहाना नहीं रहा रोडवेज का सफर


सिकुड़ रहा रोडवेज का बेड़ा
महज 150 बसों के सहारे साढ़ 13 लाख आबादी का सफर

नरेंद्र कुंडू 
जींद। जिले में आबादी बढ़ रही है लेकिन रोडवेज के जींद डिपो का बेड़ा तेजी से सिकुड़ता जा रहा है। डिपो में नई बसों की इंट्री इतनी रफ्तार से नहीं हो रही है, जितनी रफ्तार से कंडम बसें बेड़े से बाहर हो रही हैं। इस वक्त जींद डिपो के बेड़े में 150 बसें दौड़ रही हैं। इन बसों के दम पर ही जिले की साढ़े 13 लाख की आबादी का सफर तय हो रहा है। कभी जींद डिपो के बेड़े में 275 से ज्यादा बसें होती थी, जो इतिहास बन चुकी हैं। 
अब जिले के लोगों के लिए रोडवेज का सफर सहज व सुहाना नहीं रह गया है। इसका कारण है कि रोडवेज के बेड़े में इतनी बसें नहीं बची हैं, जो यात्रियों के सफर को सुहाना व आरामदायक बना दें। जिस रफ्तार से जिले में आबादी बढ़ रही है उससे तेज रफ्तार से रोडवेज बेड़े से बसें कंडम होकर बाहर हो रही हैं। रोडवेज में सफर करना यात्रियों के जी का जंजाल बन जाता है। बसों में इतनी भीड़ होती है कि महिलाओं व बच्चों की जान सांसत में आ जाती है। इतना ही नही बसें ओवरलोड होकर चलती हैं। विद्यार्थी रोजाना बसों की छतों पर सफर करते देखे जा सकते हैं। इससे रोडवेज का सफर खास विद्यार्थियों के लिए जानलेवा साबित हो रहा है। इसके लिए रोडवेज डिपो में बसों के टोटे को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। पिछले 20 सालों के दौरान जींद डिपो का बेड़ा तेजी से सिकुड़ता गया है। वर्ष 1986 में रोडवेज बेड़े में 275 बसें सड़कों पर दौड़ती थी। वर्ष 1995 में रोडवेज बेड़े से बसें कम होकर 250 रह गई। वर्ष 1995 तक बेड़े से करीबन 100 बसें बाहर हो चुकी थी। इसके बाद तो बेड़े से बसों के हटने का सिलसिला तेज रफ्तार पकड़ गया। वर्कशॉप कर्मचारियों की मानें तो हर माह 10-12 बसें कंडम होकर बेड़े से बाहर हो रही हैं। आलम यह है कि आज इस बेड़े में महज 150 बसें रह गई हैं। खास बात यह है कि इस दौरान जिले की आबादी तेजी से बढ़ी। आबादी में करीब-करीब दोगुनी बढ़ौतरी दर्ज की गई है। आज जिले की आबादी साढ़े 13 लाख तक पहुंच चुकी है। साफ है कि जितनी रफ्तार से जिले की आबादी बढ़ी, उससे ज्यादा तेजी से बसों की तादाद कम होती गई। लेकिन आबदी की रफ्तार के साथ नई बसें बेड़े में शामिल नहीं हुई। इसका परिणाम यह है कि आज रोडवेज का बेड़ा सिकुड़़कर 150 बसों पर आ टिका है। जिले के साढ़े 13 लाख लोगों को 150 बसें ही जैसे-जैसे ढोह रही हैं। 

2 परिवहन मंत्रियों के बाद भी हाथ मलता रह गया डिपो 

इसे जींद जिले के लोगों की भाग्य की विडंबना ही कहा जा सकता है कि 2-2 परिवहन मंत्री देने के बावजूद भी बेड़े में सुधार आने की बजाय घटता ही गया। वर्ष 2005 के दौरान प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी और जिले के नरवाना हलके से रणदीप ङ्क्षसह सुरजेवाला विधायक बने। सुरजेवाला को परिवहन विभाग का मंत्री बनाया गया। उनके मंत्री बनने के बाद जिले के लोगों को उम्मीद बंधी थी कि शायद अब मंत्री जी कम से कम जींद डिपो की सुध जरूर लेंगे। जींद डिपो में पर्याप्त बसें शामिल होंगी और उनका मुश्किलों भरा सफर कुछ हद तक सुहाना होगा। लेकिन जिला वासियों की आस जल्द ही टूट गई, क्योंकि मंत्रीजी ने जींद डिपो की सुध लेने की जहमत नहीं उठाई और उस वक्त भी जींद डिपो बसों के लिए तरसता रहा। इसके बाद जींद के विधायक मांगेराम गुप्ता मंत्री बने तो उनको भी परिवहन विभाग दिया गया। लोगों ने गुप्ता से भी उम्मीदें लगाई, जो पूरी नहीं हो पाई। इस दौरान भी जींद डिपो की स्थिति पहले वाली रही। डिपो में चंद नई बसें शामिल हुई होंगी, लेकिन कंडम बसें उससे ज्यादा बाहर हुई। 

ग्रामीण क्षेत्रों की यातायात व्यवस्था हो रही है प्रभावित

रोडवेज बेड़े में बसों की कमी के कारण सबसे ज्यादा दिक्कत ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को हो रही है। बसों की कमी के चलते ग्रामीण क्षेत्रों की सेवाएं बंद पड़ी हैं। इससे ग्रामीण क्षेत्र से शहर में नौकरी के लिए आने वाले व्यक्तियों व पढ़ाई के लिए स्कूल व कालेजों में आने वाले विद्याॢथयों को सबसे ज्यादा दिक्कत उठानी पड़ती है। ग्रामीण क्षेत्रों की यातायात व्यवस्था दुरुस्त नहीं होने के कारण ज्यादातर लोग या तो अपना निजी वाहन लेकर शहर में आते हैं या फिर प्राइवेट वाहनों का सहारा लेते हैं।

छात्रों के लिए जानलेवा साबित हो रहा सफर 

बस की छत पर सवाहर होकर सफर करते स्कूली बच्चों का फोटो।

रोडवेज का सिकुड़ता बेड़ा छात्रों के लिए जानलेवा साबित हो रहा है। बसों के टोटे का खामियाजा सबसे ज्यादा इन्हीं को भुगतना पड़ रहा है, क्योंकि आम यात्री तो बसों का मोह छोड़कर मैक्सी कैबों का रूख कर लेते हैं। लेकिन छात्रों ने पास बनवाए होते हैं और निजी वाहनों में किराए की परेशानी से बचने के लिए वे हर हाल में रोडवेज बस के सफर को ही वरीयता देते हैं। बसों के अंदर जगह नहीं मिलने से छात्र छतों पर चढ़ जाते हैं। इसमें कई बार छात्र नीचे गिर जाते हैं और अपनी जान तक गंवा देते हैं। 

शैड्यूल बनाकर सभी रूटों पर चलाई जा रही हैं बसें : टी.एम.

इस बारे में रोडवेज के यातायात प्रबंधक रघुबीर ङ्क्षसह से बात की गई तो उन्होंने बताया कि इस वक्त जींद डिपो में 150 के लगभग बसें हैं, जो सड़कों पर दौड़ रही हैं। समय-समय पर बेड़े में नई बसें शामिल हो रही हैं। जींद डिपो को भी कोटे के अनुसार बसें मिल रही हैं। फिर भी यात्रियों की सुविधा के लिए सही शेडयूल बनाकर विभिन्न रूटों पर बसें चलाई जा रही हैं। रोडवेज का प्रयास है कि ज्यादा से ज्यादा यात्रियों को बसों की सुविधा मुहैया हो सके।


रविवार, 2 दिसंबर 2012

एच.आई.वी. जिन्न के जबड़ों में फंस रही जिंदगियां


पिछले 10 माह में 100 का आंकड़ा पार कर चुका है एच.आई.वी. का वायरस

नरेंद्र कुंडू
जींद। एड्स जैसी लाइलाज बीमारी को कंट्रोल करने के लिए एड्स कंट्रोल सोसायटी व स्वास्थ्य विभाग की सारी मेहनत बेकार हो रही है। एड्स कंट्रोल सोसायटी व स्वास्थ्य विभाग के लाख प्रयासों के बावजूद भी एच.आई.वी. का जिन्न बोतल में बंद होने का नाम नहीं ले रहा है। विभाग द्वारा हर वर्ष जागरूकता अभियानों पर करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद भी जिले में एड्स का ग्राफ नीचे आने की बजाए लगातार ऊपर की ओर बढ़ रहा है। अब तो एच.आई.वी. का वायरस गर्भवती महिलाओं को भी अपनी चपेट में ले रहा है। जिले में पिछले 10 वर्षों में एच.आई.वी. के पाजीटिव केसों का आंकड़ा 100 के पार पहुंच गया है। एच.आई.वी. के केसों में हो रही बढ़ौतरी से यह अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि सरकार व स्वास्थ्य विभाग जागरूकता अभियानों पर करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद भी एच.आई.वी. के इस जिन्न को बोतल में बंद करने में नाकाम है। एड्स के आंकड़ों की रफ्तार को देखते जिले में स्थित काफी भयानक और चिंताजनक है। 

ड्राइवरों के सबसे ज्यादा पाजीटिव केस 

एच.आई.वी. पाजीटिव पुरुषों के मामलों में सबसे ज्यादा तादाद ड्राइवरों की है। सूत्रों के अनुसार पुरुषों में करीबन 60 प्रतिशत तक ड्राइवर पाजीटिव मिले हैं। ये लोग असुरक्षित यौन संबंधों के चलते इस खतरनाक वायरस की चपेट में आ रहे हैं। जिले में एच.आई.वी. के फैलाव का बड़ा कारण इसे ही माना जाता है। 

पुरुष ज्याद आ रहे हैं एच.आई.वी. संक्रमण की चपेट में 

स्वास्थ्य विभाग के पास पिछले 10 माह में करीबन 3500 से ज्यादा लोग एच.आई.वी. की जांच के लिए पहुंचे। इनमें 100 से ज्यादा लोग एच.आई.वी. पाजीटिव मिले हैं। इसमें लगभग 34 मामले महिलाओं के व 73 मामले पुरुषों के पाजीटिव पाए गए हैं। इसमें 5 गर्भवती भी पाजीटिव पाई गई हैं। आंकड़ों के अनुसार एच.आई.वी. संक्रणम की चपेट में सबसे ज्यादा पुरुष आ रहे हैं।

एच.आई.वी. के पिछले आठ माह के आंकड़े
माह             कुल टेस्ट        पाजीटिव पुरुष     पाजीटिव महिला     गर्भवती       

जनवरी          270                  3                   3                    1
फरवरी         307                   3                  4                     0
मार्च            561                   7                  8                    1
अप्रैल          373                   6                  4                    0
मई             476                   9                  7                    2
जून             455                   4                  5                    0
जुलाई          503                  10                  4                    1
अगस्त          374                   6                  4                    0
कुल            3319                 48                 39                   5
जिले में वर्ष 2010 में 139 तो 2011 में 92 केस रहे पाजीटिव पाए गए।

वर्ष 2010 में पाए गए सबसे ज्यादा पाजीटिव केस

इससे पहले वर्ष 2010 के दौरान भी एच.आई.वी. के आंकड़े काफी भयानक रहे हैं। वर्ष 2010 में 5100 लोग टेस्ट करवाने के लिए सामान्य अस्पताल तक पहुंचे। इनमें से 139 लोग एच.आई.वी. वायरस से ग्रस्त पाए गए। इसमें 88 पुरुष पाजीटिव रहे तो 51 महिलाएं भी पाजीटिव पाई गई। इसके अलावा वर्ष 2011 में 92 पाजीटिव केस सामने आए। इनमें 48 पुरुष तो 44 महिलाएं पाजीटिव पाई गई।  

पर्याप्त संतुलित आहार व नशे से दूरी बढ़ा सकती है लाइफ

एच.आई.वी. की रिपोर्ट पाजीटिव आने पर पीडि़त को रोहतक मैडीकल कालेज स्थित ए.आर.टी. सैंटर में रैफर कर दिया जाता है। वहां पर उसके कुछ और टेस्ट किए जाते हैं। इसके बाद उसका उपचार शुरू कर दिया जाता है। एड्स एक लाइलाज बीमारी है। अभी तक इस बीमारी का कोई स्थाई उपचार नहीं है। पीडि़त रेगूलर दवाइयां लेता रहे तो उसको काफी आराम मिलता है। इसके साथ ही नशे से दूर रहकर तथा पर्याप्त संतुलित आहार लेने से पीडि़त एच.आई.वी. वायरस से लड़ कर अपने जीवन की डोर को काफी लंबा ङ्क्षखच सकता है। 

जागरुकता अभियानों में रहे छेदों को करना होगा बंद 

करोड़ों रुपए बहाकर चलाए जा रहे एड्स विरोधी अभियान की सच्चाई इन आंकड़ों के सामने दम तोड़ जाती है। एचआई की रफ्तार सरकार, स्वास्थ्य विभाग व समाज तीनों के लिए ङ्क्षचता की बात है। जहां समाज का एक बड़ा हिस्सा एच.आई.वी. की चपेट में आता जा रहा है, वहीं सरकार व स्वास्थ्य विभाग करोड़ों खर्च कर भी लोगों को इससे नहीं बचा पा रहा है। एच.आई.वी. की ओवरस्पीड सरकार व विभाग के अभियान में छेद की ओर साफ इशारा कर रही है। यदि वास्तव में समाज को जानलेवा एच.आई.वी. से बचाना है तो सरकार व स्वास्थ्य विभाग को अपने अभियान में रहे इन छेदों को बंद करना होगा। 

एच.आई.वी. को रोकने के लिए विभाग करता है हर संभव प्रयास : सिविल सर्जन

इस बारे में जब सिविल सर्जन डॉ. राजेंद्र प्रसाद से बातचीत की गई तो उन्होंने बताया कि पिछले वर्षों की बजाए इस वर्ष स्थित काफी नियंत्रित है। जिले में सी.एच.सी. स्तर पर 5 सैंटर खोले गए हैं। इन सैंटरों में एक काऊंसलर की नियुक्ति की गई है, जो एच.आई.वी. के बारे में पूरी जानकारी देता है। इसके अलावा नुक्कड़ नाटकों के जरिए लोगों को जागरूक किया जा रहा है। गर्भवतियों, टी.बी. के मरीजों के अलावा जो भी मरीज आप्रेशन के लिए आता है उसका भी टैस्ट किया जाता है। पाजीटिव मिलने पर विभाग का वर्कर उसके घर पर जाकर चेकअप करता है। विभाग एच.आई.वी. को कंट्रोल करने के लिए हर संभव प्रयास करता है। 

अधिकारियों की लापरवाही के कारण जंग की भेंट चढ़ रहे हैं लाखों के कृषि यंत्र



विभाग के पास नहीं  है कृषि यंत्रों के उचित रख-रखाव की व्यवस्था

नरेंद्र कुंडू

जींद। यांत्रिकी विभाग के अधिकारियों की लापरवाही के चलते कृषि कार्यों को बढ़ावा देने वाली लाखों रुपए की मशीनें जंग की भेंट चढ़ रही हैं लेकिन विभाग के अधिकारियों के पास इनकी देखरेख के लिए फुरस्त नहीं है। इस प्रकार विभाग के अधिकारियों की लापरवाही के कारण कृषि विभाग द्वारा किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए शुरू की जाने वाली योजनाएं बीच रास्ते में ही दम तोड़ रही हैं। सरकारी उपकरणों के प्रति विभागीय अधिकारियों की इस बेरूखी का खामियाजा किसानों के साथ-साथ विभाग को भी भुगतना पड़ रहा है। किसानों को जहां सही समय पर विभाग की योजनाओं का पूरा लाभ नहीं मिलता है तो मशीनें खराब होने के कारण विभाग को भी लाखों रुपए का नुक्सान उठाना पड़ता है। अधिकारियों द्वारा मशीनों के उचित रख-रखाव की व्यवस्था नहीं करने के कारण लाखों रुपए की मशीनें खुले आसमान के नीचे ही जंग की भेंट चढ़ रही हैं और अधिकारी इन मशीनों को ठीक करवाने की बजाए मुक दर्शक बने हुए हैं। अधिकारी मशीनों के रख-रखाव के लिए विभाग के पास पैसे की कमी का रोना रो रहे हैं।

क्या है विभाग की योजना

कृषि विभाग ने कृषि कार्यों में पानी की बचत कर किसानों को प्रोत्साहित करने के साथ-साथ कृषि कार्यों को बढ़ावा देने के लिए वर्ष 2009 में प्रमोशन एंड स्ट्रैथिंग ऑफ एग्रीकल्चर मैकाइनजैशन स्कीम शुरू की थी। इस स्कीम के तहत किसानों को कृषि कार्यों में पानी की बचत के लिए लेजर टैक्नोलाजी से चलने वाली लेजर लैंड लेवलर मशीन के साथ जमीन को समतल करने के लिए प्रेरित किया जाना था। इससे उबड़-खाबड़ जमीन को भी आसानी से समतल कर कृषि योज्य बनाया जा सकता है। इससे किसान को समय के साथ-साथ लगभग 40 प्रतिशत पानी की बचत भी होती है। 

किसानों को ढीली करनी पड़ रही है जेब  

कृषि यांत्रिकी विभाग कार्यालय के बाहर पड़ी मशीनें। 

विभाग द्वारा अधिक से अधिक किसानों तक इस योजना को पहुंचाने के लिए किसानों को 10 घंटे के लिए 1 हजार रुपए पर मशीन उपलब्ध करवाई जाती है। इसके अलावा विभाग द्वारा किसान से 3 रुपए प्रति किलोमीटर व ट्रैक्टर का डीजल भी लिया जाता है। विभागीय अधिकारियों की मानें तो एक एकड़ पर किसान को लगभग 350 रुपए प्रति घंटे का खर्च आता है, जबकि प्राइवेट ट्रैक्टर चालक किसान से 600 से 700 रुपए प्रति घंटा वसूल रहे हैं। विभाग द्वारा टारगेट कम करने व मशीनें खराब होने के कारण किसानों को मजबूरीवश अपनी जेब ढीली कर प्राइवेट ट्रैक्टर चालकों का सहारा लेना पड़ रहा है। 
 टै्रक्टर जिसकी हवा निकली हुई है 

घट रहा है विभाग का टारगेट

सरकार द्वारा लेजर लैंड लेवलर के माध्यम से जमीन को समतल करने के लिए कृषि यांत्रिकी विभाग को 2 ट्रैक्टर व 9 लेजर लैंड लेवलर मशीनें उपलब्ध करवाई गई थी। सरकार द्वारा उठाए गए इस कदम का मुख्य उद्देश्य कृषि कार्यों में पानी की बचत करना था। ताकि किसान को समय के साथ-साथ पैसे की बचत भी हो। अधिक से अधिक किसानों को इस योजना के तहत लाभ देने के लिए कृषि विभाग द्वारा कृषि यांत्रिकी विभाग को हर वर्ष टारेगट दिया जाता था। लेकिन विभाग पैसे की कमी बताकर हर बार इस टारगेट को कम कर रहा है। विभाग द्वारा इन मशीनों के माध्यम से वर्ष 2009 से अब तक जिलेभर में सिर्फ 8 हजार एकड़ जमीन को ही समतल किया गया है। इस योजना के तहत कृषि यांत्रिकी विभाग को 2011 में 4 हजार एकड़ का टारगेट दिया गया था। योजना को किसानों से मिल रहे अच्छे रिस्पांश के कारण विभाग ने 2011 में समय रहते इसे पूरा कर लिया लेकिन विभाग द्वारा 2012 में इस टारगेट को बढ़ाने की बजाए कम कर दिया गया और 4 हजार की बजाए सिर्फ 3 हजार एकड़ का टारगेट विभाग को दिया गया। लेकिन विभाग के नकारा कृषि यंत्रों के कारण किसानों ने भी सरकारी मशीनों से मुहं मोड़ कर प्राइवेट मशीनों की तरफ अपना रूख कर लिया। किसानों की बेरूखी के कारण विभाग अब तक 3 हजार एकड़ के टारगेट तक नहीं पहुंच पाया। अब तक विभाग 3 हजार में से सिर्फ 2500 एकड़ का टारगेट ही पूरा कर पाया है। 

लाखों रुपए की मशीनरी हो रही है खराब 

कृषि यांत्रिकी विभाग के पास लेजल लैंड लेवलर को चलाने के लिए 2 ट्रैक्टर व 9 लेजर लैंड लैवलर मशीनें हैं। इसके अलावा विभाग के पास वैजीटेबल वाशर व अन्य कृषि यंत्र भी हैं लेकिन विभाग के अधिकारियों की लापरवाही से लाखों रुपए के यह यंत्र जंग की भेंट चढ़ रहे हैं। यहां विभाग के पास कृषि यंत्रों के लिए सबसे बड़ी कमी शैड की है। विभाग के पास यंत्रों को रखने के लिए शैड नहीं है। इस कारण यंत्र खुले आसमान के नीचे ही पड़े रहते हैं। लोहे के ये यंत्र खुले आसमान के नीचे पड़े रहने के कारण धूल व पानी लगने के कारण जंग की भेंट चढ़ रहे हैं। अधिकारियों द्वारा मशीनों के सही रख-रखाव की उचित व्यवस्था नहीं करवाने के कारण लेजर लैंड लेवलर मशीन को चलाने के लिए जो ट्रैक्टर विभाग के पास हैं वह भी खराब हो रहे हैं। इन दोनों ट्रैक्टरों में से एक ट्रैक्टर के टायरों की हवा निकली हुई है। इससे हजारों रुपए कीमत के टायर खराब हो रहे हैं।

शैड के निर्माण के लिए उच्चाधिकारियों को भेजा जाएगा प्रपोजल

इस बारे में कृषि यांत्रिकी विभाग के सहायक कृषि इंजीनियर जिले सिंह वर्मा से बातचीत की गई तो उन्होंने कहा कि जल्द ही कृषि यंत्रों को ठीक करवाने का काम किया जाएगा। बजट के अभाव के कारण शैड का निर्माण नहीं हो पाया है। शैड के निर्माण के लिए विभाग के उच्चाधिकारियों को प्रपोजल तैयारकर भेजा जाएगा। 



फाइलों में ही दम तोड़ गई जिला प्रशासन की गौ रक्षक योजना


डी.सी. के आदेशों के 10 माह बाद भी नप ने योजना पर नहीं किया अमल

नरेंद्र कुंडू
जींद। जिले में गऊ कल्याण योजना फाइलों में ही सिमटकर रह गई। उपायुक्त के आदेशों के लगभग 10 माह बाद भी योजना पर अमल नहीं हुआ है। शहर में आवारा घूम रही पूजनीय गऊ माता की दुर्गति हो रही है। प्रशासन की तरफ से जिले में आवारा घूम रही गायों के लिए योजना बनाकर नगर परिषद को इसका जिम्मा सौंपा गया था। लेकिन नगर परिषद तक यह योजना पहुंचते ही फैल हो गई और नप की तरफ से इस योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया। नगर परिषद की इस लापरवाही का फायदा गौ तस्कर उठा रहे हैं और रात्रि के समय बेजुबान इन गायों को वाहनों में भरकर गौकसी के लिए लेकर जा रहे हैं। ऐसे में प्रशासन की इस लापरवाही से गौभक्तों में लगातार विरोध हो रहा है। हालांकि शहर में आवारा गायों की तदाद बढऩे से सड़क दुर्घटनाओं में वृद्धि होने की आशंका भी बनी रहती है। ऐसे में सड़क दुर्घटनाएं के एक मुख्य कारण को जनाने के बावजूद भी प्रशासन केवल गऊ माता के कल्याण की योजनाएं बनाने तक ही सीमित रह गया है और योजनाओं को अमलीजामा पहनाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा रहा है। हालांकि आवारा घूम रही इन गायों में सबसे ज्यादा दुधारू गायें हैं। जिनके मालिक सुबह व शाम के वक्त इन गायों का दूध निकालकर बाहर घूमने के लिए छोड़ देते हैं। बाद में गाय शहर में फल फ्रूट व सब्जी का कार्य करने वालों के लिए परेशानी बढ़ा देती हैं।

10 माह बाद भी उपायुक्त के आदेशों पर नहीं हुआ अमल

 शहर की सड़कों पर आवारा घूम रही गायें।
जिले में गऊ माता के बढ़ रहे अनादर को देखते हुए फरवरी 2011 को उपायुक्त डा. युद्धबीर ख्यालिया ने जिले के गऊशालाओं प्रबंधकों व नगर परिषद के अधिकारियों की बैठक लेकर इन आवार गायों को पकड़कर गऊशाला में छोडऩे के आदेश दिए थे। आदेशों में कहा गया था कि आवारा घूमने वाले पशुओं को गऊशालाओं में छुडवाएं। पकड़ी हुई गायों को जो भी मालिक छुड़वानें के लिए आएगा उसे 3 हजार रुपए की राशि जुर्माने अथवा खर्च के रूप में अदा करनी होगी और यदि गाय का मालिक बार-बार गायों को आवारा छोड़ता है तो उसके खिलाफ आपराधिक मामला भी दर्ज किया जाएगा। इसमें भिवानी रोड पर स्थित श्री गऊशाला ने आवारा गायों को अपनी गऊशाला में रखने का जिम्मा दिया गया था लेकिन लगभग 10 माह बीत जाने के बावजूद भी उपायुक्त के आदेशों की आज तक पालना नहीं हुई है। 

गौ संरक्षण के लिए प्रशासन को उठाने चाहिएं ठोस कदम

बजरंग दल गऊ रक्षा संघ के जिला प्रमुख नरेन्द्र शर्मा ने कहा कि सर्दी के साथ ही जिले में गऊओं की तस्करी के मामले बढऩे लगे हैं। तस्करी पर लगाम लगाने के लिए 4 दिसम्बर को हिसार में संगठन की बैठक होगी। बैठक में गौ तस्करी को रोकने के लिए रणनीति तैयार की जाएगी। उन्होंने बताया कि संगठन द्वारा धुंध का मौसम शुरू होते ही जगह-जगह पर नाके लगाकर वाहनों की जांच की जाती है और तस्करी के लिए जा रही गायों से भरे हुए वाहनों को पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया जाता है। लेकिन पुलिस प्रशासन की तरफ से उन्हें सहयोग नहीं मिलता है। गायों की तस्करी के कारण इनकी संख्या लगातार कम होती जा रही है। अगर इसी प्रकार चलता रहा तो 15 से 20 वर्षों में गाय का नामो-निशान ही मिट जाएगा। इसलिए प्रशासन की तरफ से गायों की संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए।



..यह सफर नहीं आसान


कंडम सामान के सहारे दौड़ रही हैं रोडवेज की बसें

नरेंद्र कुंडू
जींद। आरामदेह एवं सुखद यात्रा का दम भरने वाले हरियाणा रोडवेज विभाग की बसें कंडम स्पेयर पार्ट्स के सहारे चल रही हैं। कंडम बसों के लिए नया स्पेयर पार्ट्स उपलब्ध नहीं होने के कारण वर्कशॉप में कल-पूर्जों का भारी टोटा बना हुआ है। स्पेयर पार्ट्स की कमी के चलते नई बसों में तकनीकि खराबी आने पर कंडम बसों के स्पेयर पार्ट का सहारा लिया जा रहा है। रोडवेज विभाग की इस लापरवाही का खामियाजा यात्रियों को अपनी जान देकर चुकाना पड़ सकता है। रोडवेज की कार्यशाला में समय पर स्पेयर पार्ट्स उपलब्ध न होने के कारण बसें कई-कई दिनों तक कार्यशाला में ही खड़ी रहती हैं। इससे रोडवेज को लाखों रुपए के राजस्व का चूना लग रहा है। 

ज्यादातर किस सामान का होता है प्रयोग

कार्यशाला में समय पर नया स्पेयर पार्ट्स उपलब्ध नहीं होने के कारण मैकेनिकों को मजबूरन कंडम स्पेयर पार्ट्स का सहारा लेना पड़ रहा है। सूत्रों के अनुसार कंडम बसों से बैरंग, गियर बक्सा, इंजन का सामान, हैड, डिफैंसर, धूर्रा, कमानी, डैनमो, एस्टीलेटर, लाइट, स्टेयरिंग, टायर, रिम, बॉडी पार्ट और जो प्रयोग के लायक हो उस बस की बैटरी भी बदल कर प्रयोग में ले ली जाती है। 

2 माह से वर्कशॉप में ही खड़ी है बस

मामले की पूरी सच्चाई जानने के लिए जब टीम ने वर्कशॉप का मुआयना किया तो वर्कशॉप में काम कर रहे कर्मचारियों ने डिपो की बस एच.आर. 37 सी 1953 में लगभग 2 माह पहले रोहतक बस स्टैंड के बाहर वायरिंग शॉट के कारण आग लग गई थी। इसके बाद बस को यहां वर्कशॉप में रिपेयरिंग के लिए लाया गया था लेकिन वर्कशॉप में सामान की कमी के कारण यह बस पिछले 2 माह से इसी तरह खड़ी है। 

 सामान के अभाव में पिछले 2 माह से वर्कशॉप में खड़ी बस। 


पुराने सामान का लिया जाता है सहारा : नेहरा 

प्रधान अजीत नेहरा। 
रोडवेज कर्मचारी यूनियन के डिपो प्रधान अजीत नेहरा ने कहा कि कार्यशाला में समय पर नया स्पेयर पार्ट्स  पलब्ध नहीं होने के कारण मजबूरीवश कंडम बसों से स्पेयर पार्ट्स निकाल कर प्रयोग में लाया जाता है। उन्होंने कहा कि अधिकारियों की लापरवाही के कारण रोडवेज को लाखों रुपए का चूना लग रहा है। स्टोर में स्पेयर पार्ट्स पलब्ध नहीं होने के कारण बस कई-कई दिनों तक कार्यशाला में खड़ी रहती है। नेहरा ने आरोप लगाते हुए कहा कि विभाग के अधिकारी अपनी जेब भरने के चक्कर में आवश्यकता के अनुसार सामान नहीं खरीदते हैं। पुराने सामान का प्रयोग कर कागजों में नया दिखाकर विभाग को चूना लगा रहे हैं। 
 वर्कशॉप में खड़ी कंडम बसें जिनका स्पेयर पार्ट्स निकाला गया है।

स्पेयर पार्ट्स की नहीं है कमी : डब्ल्यू.एम.

इस बारे में जब वर्कशॉप मैनेजर (डब्ल्यू.एम.) से बातचीत की गई तो उन्होंने कहा कि वर्कशॉप के स्टोर में किसी भी स्पेयर पार्ट्स की कमी नहीं है। किसी भी बस को स्पेयर पार्ट्स की कमी के कारण वर्कशॉप में खड़ा नहीं रहने दिया जाता। अगर स्टोर में कोई स्पेयर पार्ट्स उपलब्ध नहीं हो पाता तो समय रहते मुख्यालय पर उसके लिए प्रपोजल भेज कर जल्द से जल्द उसको मंगवा लिया जाता है। यूनियन के पदाधिकारी जानबुझकर रोडवेज के अधिकारियों को बदनाम करने की साजिश रचते रहे हैं। 

अधिकारियों को बदनाम करने की रच रहे हैं साजिश

इंटक यूनियन के डिपो सचिव वीरेंद्र कुमार ने कहा कि वर्कशॉप में किसी भी सामान की कमी नहीं है। रोडवेज यूनियन का डिपो प्रधान व उसके कुछ साथ जान बुझकर अधिकारियों को बदनाम करने की साजिश रचते रहते हैं। यूनियन के पदाधिकारी अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए कर्मचारियों को गुमराह करते रहते हैं। 
 डिपो सचिव वीरेंद्र कुमार




दुकानदारों के सामने बौना साबित हो रहा फूड सेफ्टी एक्ट


विभाग के पास अभी तक पहुंचे महज 100 आवेदन

नरेंद्र कुंडू 
जींद।जिले के दुकानदारों के सामने फूड सेफ्टी एक्ट बौना साबित हो रहा है। दुकानदारों के लिए यह एक्ट बेमानी साबित हो रहा है। लोगों की सेफ्टी के लिए फूड सेफ्टी एक्ट तो बन गया और लागू भी हो गया लेकिन जनता की सेफ्टी अभी तक नहीं हो सकी है। एक्ट के प्रति न तो अधिकारी ही रुचि दिखा रहे और न ही दुकानदार परवाह कर रहे हैं। इस एक्ट को लागू हुए एक साल से ऊपर चुके हैं, लेकिन अभी तक महज 100 लाइसैंस के लिए आवेदन पहुंचा है। अधिकारियों की लापरवाही व जागरुकता के अभाव से यह एक्ट बेमौत मरने के कगार पर है। अगस्त 2011 में केन्द्र व राज्य सरकार ने खाद्य वस्तुओं में बढ़ रही मिलावट को रोकने तथा लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाले लोगों पर लगाम कसने के लिए फूड सेफ्टी कानून बनाया। इसके तहत एक दूध विक्रेता से लेकर खाद्य वस्तुओं का बड़ा कारोबार करने वाले तक लाइसैंस बनाना अनिवार्य किया गया है। जिसका मुख्य मकसद खाद्य वस्तुओं की बिक्री करने वाले दुकानों व अन्य उत्पादों का निर्माण करवाने वाले प्रतिष्ठानों की पहचान करना था, ताकि समय-समय पर उनकी जांच की जा सके। लेकिन जिले में इस एक्ट का कोई असर होता दिखाई नहीं दे रहा है। जिले में इस समय खाद्य वस्तु से संबंधित लगभग सात हजार से अधिक दुकानें चल रही है, लेकिन केवल 100 दुकानदारों ने ही इस एक्ट के प्रति रूचि दिखाई है। जिले में फूड सेफ्टी एक्ट केवल कागजों में ही सिमटकर रह गया है। हालांकि केन्द्र सरकार ने लाइसैंस बनाने की इस प्रक्रिया को मार्च 2012 माह तक पूरा करने के दिए थे, लेकिन इस दौरान कार्य पूरा न होने के चलते बाद में इसकी तिथि को बढ़ाकर अगस्त 2012 तक का समय दे दिया था। लेकिन एक्ट को लागू होने के एक साल तीन माह बीत गए है, लेकिन लाइसैंस बनाने की जो रफ्तार नहीं पकड़ी। शहर के खाद्य विक्रेता पंजीकरण से दूर रहना चाहते हैं। 

7 हजार से अधिक चलती है दुकानें

सरकारी आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो जिले में सात हजार से अधिक दुकानों के अलावा हजारों ऐसे लोग हैं, जो दूध बेचने से लेकर दूसरी खाद्य वस्तुओं की बिक्री बड़े से छोटे स्तर पर कर रहे हैं। लेकिन मात्र 100 दुकानदार ही ऐसे है, जिसने फूट सेफ्टी एक्ट का समर्थन करते हुए लाइसैंस लिया है। खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम 31 के तहत सभी खाद्य कारोबार करने वालों को लाइसैंस अथवा पंजीकरण करवाना अनिवार्य है। अधिनियम के प्रावधान के अनुसार खाद्य कारोबार चाहे लाभ के लिए हो या न हो, सार्वजनिक व निजी रूप से खाद्य पदार्थों का निर्माण, पैकेज, भंडारण, वितरण या आयात करता है तो इस अधिनियम के तहत लाइसैंस या पंजीकरण जरूरी है। इसके अतिरिक्त खाद्य सेवा कैटङ्क्षरग खाद्य संघटक की बिक्री भी पंजीकरण के प्रावधानों में है। छोटा फुटकर विक्रेता, फेरी वाला, अस्थायी स्टाल धारक, कैटरर, कार्यक्रम में खाद्य वस्तुओं के वितरण को भी इस अधिनियम के तहत शामिल किया गया है।

क्यों जरूरी है लाइसैंस

राज्य और केन्द्र सरकार की ओर से फूड सेफ्टी एक्ट के तहत फूड लाइसैंस देने का प्रावधान है, ताकि संबंधित व्यापारी से यह गारंटी ली जा सके कि वह ऐसी कोई खाने, पीने की चीजें नहीं बेचेगा जो तय मापदंडों पर खरी नहीं उतरती, मिलावटी और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो। अगर खानपान का व्यापार करने वाला कोई भी व्यापारी मसलन परचून वाले, होटल, रेस्तरां, दुकानें आदि यह लाइसैंस नहीं लेता है तो फूड सेफ्टी एक्ट के सेक्शन 63 के अनुसार उसके 5 लाख रुपए तक का जुर्माना और छह महीने तक की जेल हो सकती है।

फूड सेफ्टी एक्ट की कैटेगरी

1. सालाना 12 लाख से कम का टर्नओवर या फिर प्रतिदिन 100 किलोग्राम से कम की सेल वाले छोटे व्यापारियों के लिए 100 रुपए का डी.डी. देकर रजिस्ट्रेशन। 
2.  12 लाख से ज्यादा के टर्नओवर या प्रतिदिन सौ किलोग्राम से ज्यादा की सेल करने वाले व्यापारियों को लाइसैंस के लिए 2 हजार रुपए का डी.डी.।
3.  उत्पादन के लिहाज से 1 हजार किलोग्राम से कम उत्पादन करने वाले व्यापारियों के लिए 3 हजार रुपए का डी.डी.।
4.  एक हजार किलो से ज्यादा उत्पादन करने वालों के लिए 5 हजार रुपए का डिमांड ड्राफ्ट।
5.  जिन व्यापारियों का 2 हजार किलो से ज्यादा का उत्पादन है, उन्हें लाइसेंस देने का अधिकार केन्द्र सरकार का है। इसके लिए डिमांड ड्राफ्ट भी 7 हजार रुपए का होगा।

चलाया जाता है जागरूकता अभियान

जे.एफ.आई. एन.डी. शर्मा ने कहा कि खाद्य पदार्थों की बिक्री करने वाले सभी दुकानदारों लाइसैंस लेना अनिवार्य है। अब तक उनके पास केवल 100 दुकानदार का ही लाइसैंस बनवाने के लिए आवेदन किया है। सरकार ने अब रजिस्ट्रेशन करवाने के लिए फरवरी 2013 तक का समय दिया गया है। इसके लिए विभाग की तरफ से विशेष जागरूकता अभियान चलाया जाएगा और प्रत्येक दुकानदार को रजिस्ट्रेशन करने के लिए प्रेरित किया जाएगा। अगर उसके बाद भी कोई दुकानदार रजिस्ट्रेशन नहीं करवाता है तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई अमल में लाई जाएगी।