शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

'बेसहारा' हुए दूसरों को सहारा देने वाले


बंद होने वाला है बेसहारों को आश्रय देने वाला शैल्टर होम 
शैल्टर होम चलाने वाली संस्था ने मदद से खींचे हाथ

नरेंद्र कुंडू
जींद। बेसहारों को सहारा देने तथा अपनों से बिछुड़े बच्चों को उनके अभिभावकों तक पहुंचाने में बाल संरक्षण विभाग एक कड़ी का काम करता है। बिछुड़े हुओं को मिलवाने का काम करने वाले इस विभाग के अधिकारियों के सामने अब जींद जिले में एक गंभीर समस्या आन खड़ी हुई है। क्योंकि अब जिले में अनाथ व बेसहारा बच्चों के रहने के लिए विभाग के पास कोई आश्रय स्थल नहीं बचा है। कारण यह है कि जिले में अनाथ व बेसहारा बच्चों को आश्रय देने वाली संस्था स्टेट कोर्डिनेटर मिशन इंडिया ने बेसहारों को सहारा देने से अपने हाथ पीछे खींच लिए हैं। मिशन इंडिया संस्था द्वारा बेसहारा व अनाथ बच्चों के रखने के लिए शहर की अर्बन एस्टेट कालोनी में शुरू किए गए शैल्टर होम को बंद कर दिया है। शैल्टर होम बंद होने के कारण अब बाल संरक्षण विभाग के पास बेसहारा बच्चों को आश्रय देने के लिए कोई आश्रय स्थल नहीं है।  
अनाथ व बेसहारा बच्चों को सहारा देने की जिम्मेदारी भी बाल संरक्षण विभाग के पास है। किसी भी परिस्थितियों में अपनों से बिछुड़कर बाल संरक्षण विभाग के पास पहुंचे बच्चों को उनके परिजनों के मिलने तक विभाग द्वारा आश्रय दिया जाता है। बाल संरक्षण विभाग द्वारा जिले में बेसहारा बच्चों को सहारा देने के लिए एक सामाजिक संस्था स्टेट कोर्डिनेटर मिशन इंडिया के माध्यम से आश्रय मुहैया करवाया जाता था। इसके लिए मिशन इंडिया संस्था द्वारा शहर की अर्बन एस्टेट कालोनी में एक शैल्टर होम की व्यवस्था की गई थी। बाल संरक्षण विभाग को मिलने वाले बेसहारा व अनाथ बच्चों को इसी शैल्टर होम में आश्रय दिया जाता था लेकिन बेसहारा व अनाथों को सहारा देने वाले बाल संरक्षण विभाग के अधिकारियों के सामने जींद जिले में अब एक बड़ी समस्या आन खड़ी हुई है। यह समस्या है बेसहारा तथा अनाथ बच्चों को आश्रय मुहैया करवाने की। क्योंकि बेसहारों व अनाथों को आश्रय देने वाली मिशन इंडिया संस्था ने अब बाल संरक्षण विभाग की मदद से अपने हाथ पीछे खींच लिए हैं। संस्था ने बाल संरक्षण विभाग को शैल्टर होम बंद करने सम्बंधि नोटिस भेजा है। संस्था द्वारा नोटिस मिलने के बाद बाल संरक्षण विभाग ने शैल्टर होम में रहने वाले बेसहारा बच्चों को दूसरे जिले के शैल्टर होम में शिफ्ट करवा दिया है। 

पूरे जिले में विभाग के पास था एकमात्र शैल्टर होम

मिशन इंडिया संस्था का शैल्टर होम बंद होने के कारण बाल संरक्षण विभाग के अधिकारी गंभीर समस्या में फंस गए हैं, क्योंकि बेसहारा व अनाथ बच्चों को आश्रय देने के लिए पूरे जिले में यह एक मात्र शैल्टर होम था और अब यह भी बंद हो गया है। ऐसे में अगर अब कोई बेसहारा या अनाथ बच्चा विभाग के पास पहुंचता है तो बच्चे के मैडीकल से लेकर अन्य कागजी कार्रवाई पूरी करने तक बच्चे को आश्रय देने के लिए विभाग के पास कोई स्थान नहीं बचा है। 

3 साल से कागजों में अटका शैल्टर होम का निर्माण

बाल संरक्षण विभाग द्वारा जिले में शैल्टर होम का निर्माण करने के लिए बीबीपुर गांव में साइट तय की गई है। विभाग द्वारा बीबीपुर गांव में शैल्टर होम के निर्माण के लिए जमीन अधिग्रहण करने के लिए पिछले 3 साल से प्रयास जारी हैं लेकिन अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं। अभी तक विभाग बीबीपुर गांव में शैल्टर होम के लिए जमीन भी अधिग्रहण नहीं कर पाया है। जमीन अधिग्रहण नहीं होने के कारण शैल्टर होम का निर्माण कार्य सिर्फ कागज में ही सिमट कर रह गया है। 
 वह मकान जहां मिशन इंडिया संस्था द्वारा शैल्टर होम खोला गया था। 

आर्थिक परेशानी के चलते लिया शैल्टर होम बंद करने का निर्णय

इस बारे में जब स्टेट कोर्डिनेटर मिशन इंडिया संस्था के संचालक मनफूल सिंह से सम्पर्क किया गया तो उन्होंने बताया कि संस्था आर्थिक परेशानी से गुजर रही थी। आर्थिक परेशानी के कारण उन्होंने शैल्टर होम बंद करने का निर्णय लिया है। शैल्टर होम बंद करने से सम्बंधित नोटिस बाल संरक्षण विभाग के अधिकारियों के पास भेज दिया गया है।  

मिशन इंडिया संस्था द्वारा शैल्टर होम बंद करने से सम्बंधित नोटिस मिला है। जिले में यह एकमात्र शैल्टर होम था। अनाथ व बेसहारा बच्चों को आश्रय से सम्बंधित किसी भी प्रकार की कोई परेशानी नहीं आने दी जाएगी। उन्होंने जिला प्रशासनिक अधिकारियों को इस बारे अवगत करवा दिया है। प्रशासन द्वारा शैल्टर होम से सम्बंधित समस्या का जल्द ही समाधान निकाल कर दूसरे शैल्टर होम की व्यवस्था कर दी जाएगी। बीबीपुर गांव में शैल्टर होम के लिए जमीन अधिग्रहण के लिए विभाग के उच्च अधिकारियों को रिपोर्ट भेजी गई है। विभाग से मंजूरी मिलते ही जमीन अधिग्रहण कर शैल्टर होम का निर्माण शुरू करवा दिया जाएगा। 
सरोज तंवर
जिला बाल संरक्षण अधिकारी, जींद 


गेहूं की फसल पर भी आए कीट ज्ञान क्रांति के सकारात्मक प्रयोग


ईंटल कलां गांव के किसान ने गेहूं की फसल पर किया प्रयोग
नामात्र उर्वकों का प्रयोग कर गेहूं का लिया अच्छा उत्पादन

नरेंद्र कुंडू
जींद। निडाना गांव के गौरे से शुरू हुई कीट ज्ञान क्रांति के सकारात्मक परिणाम जिले के किसानों के सामने आने लगे हैं। हालांकि निडाना सहित लगभग दर्जनभर गांवों के किसान कपास व धान की फसल पर तो अपने कीट ज्ञान का सफल प्रयोग कर चुके हैं लेकिन इस बार इस मुहिम से जुड़े किसान द्वारा गेहूं की फसल पर किए गए प्रयोग से भी काफी सकारात्मक परिणाम निकल कर सामने आए हैं। कीटनाशक रहित खेती की मुहिम से जुड़े ईंटल कलां गांव के किसान कृष्ण कुमार ने गेहूं की फसल में नामात्र रासायनिक उर्वकों का प्रयोग कर गेहूं की फसल से अन्य किसानों से ज्यादा उत्पादन लिया है। किसान कृष्ण कुमार द्वारा तैयार की गई गेहूं की खास बात यह है कि इस गेहूं का वजन दूसरे किसानों द्वारा तैयार की गई गेहूं से ज्यादा है।
लोगों की थाली को जहरमुक्त करने के लिए कीट ज्ञान क्रांति की शुरूआत वर्ष 2007 में जिले के गांव रुपगढ़ से शुरू हुई थी। कीट ज्ञान क्रांति की इस मुहिम को आगे बढ़ाते हुए वर्ष 2008 में गांव निडाना के किसानों इस मुहिम को अपना कर रफ्तार देने का काम किया था। इसके बाद निडाना गांव के साथ-साथ आस-पास के लगभग एक दर्जन से भी ज्यादा गांवों में इस क्रांति ने दस्तक दी। इसी के साथ गांव ईंटल कलां से भी कुछ किसान इस मुहिम में शामिल हुए। गांव ईंटल कलां के किसान कृष्ण कुमार का कहना है कि पहले वह भी अन्य किसानों की तरह खेती-बाड़ी का काम करता था और अच्छे उत्पादन की चाह में फसल में अंधाधुंध उर्वकों व कीटनाशकों का इस्तेमाल करता था। फसल में अधिक उर्वकों के इस्तेमाल के कारण फसल उत्पादन पर उसका खर्च तो बढ़ता चला गया लेकिन उत्पादन नहीं बढ़ा। इससे उसके सामने आर्थिक संकट खड़ा होने लगा। किसान कृष्ण कुमार का कहना है कि वह वर्ष 2012 में कीट ज्ञान क्रांति की मुहिम से जुड़ा और कपास के सीजन के दौरान निडाना गांव में लगने वाली किसान पाठशालाओं से कीट ज्ञान हासिल किया। कीटों की पहचान के साथ-साथ उसने फसल में उर्वकों तथा कीटनाशकों का इस्तेमाल भी कम कर दिया। इससे उसकी काफी परेशानियां तो स्वयं ही खत्म हो गई। कृष्ण कुमार ने बताया कि इस बार उसने 4 एकड़ जमीन में 1711 तथा 17 नंबर गेहूं के बीज का मिश्रण कर बिजाई की थी। इसमें से अढ़ाई एकड़ जमीन से कृष्ण ने गेहूं की कटाई कर ली है, जबकि डेढ़ एकड़ से अभी गेहूं की कटाई बाकी है। किसान कृष्ण कुमार का कहना है कि जहां कपास की फसल में उसने नामात्र उर्वकों का प्रयोग कर अच्छा उत्पादन लिया था, वहीं अब गेहूं की फसल में भी नामात्र उर्वकों का इस्तेमाल कर अन्य किसानों से अच्छा उत्पादन लिया है। किसान कृष्ण कुमार ने बताया कि उसे प्रति एकड़ से 50 मण गेहूं का उत्पादन हुआ। जबकि गांव के अन्य किसान को प्रति एकड़ से 40 से 45 मण का उत्पादन मिला है। अन्य किसानों के गेहूं के मुकाबले उसके गेहूं में वजन ज्यादा है। उसके गेहूं की खास बात यह है कि उसकी गेहूं की फसल में उर्वकों का प्रयोग नामात्र होने तथा कीटनाशकों का प्रयोग नहीं होने के कारण उसकी गेहूं काफी हद तक जहर मुक्त है।

इस तरह बढ़ाया उत्पादन

ईंटल कलां निवासी कृष्ण कुमार ने इस बार अपनी गेहूं की फसल की बिजाई के बाद केवल 68 किलोग्राम यूरिया, 8 किलोग्राम डी.ए.पी. तथा 2 किलोग्राम जिंक  डाली है। इसके लिए कृष्ण ने डी.ए.पी., यूरिया तथा जिंक का घोल तैयार कर हर 15 दिन के अंतर में कुल 4 बार फसल पर स्प्रे पम्प से इस घोल का छिड़काव किया है। एक बार के घोल में कृष्ण ने 100 लीटर पानी में 2 किलो यूरिया, 2 किलो डी.ए.पी. तथा आधा किलो जिंक प्रयोग की है। इसके अलावा 20-20 किलो यूरिया 3 बार सीधे फसल में डाला है। जबकि पहले यह किसान अपनी एक एकड़ फसल में 150 से 200 किलो यूरिया का इस्तेमाल करता था और इसके अलावा काफी मात्रा में कीटनाशकों का प्रयोग भी करता था।
 ए.डी.ओ. कमल सैनी के साथ मौजूद किसान कृष्ण कुमार अपना अनुभव सांझा करते हुए।  

पकाई के दौरान फसल को नाइट्रोजन की होती है अधिक जरुरत 

पिछले वर्ष की बजाए इस वर्ष जिले में गेहूं का उत्पादन कम हुआ है। क्योंकि पिछले वर्ष ठंड का मौसम लंबा चला था लेकिन इस वर्ष तापमान में ज्यादा उतार-चढ़ाव हुआ है। इस कारण गेहूं की फसल को पकने के लिए पूरा समय नहीं मिल पाया। ईंटल कलां के किसान कृष्ण ने यूरिया, डी.ए.पी. व जिंक का घोल तैयार कर फसल पर जो छिड़काव किया है। उससे उसका उत्पादन बढ़ा है। क्योंकि गेहूं की फसल को पकते वक्त सबसे ज्यादा नाइट्रोजन व फासफोर्स की जरुरत होती है। नाइट्रोजन से फसल में अमीनो एसिड बनता है और अमीनो एसिड प्रोटीन बनाने में सहायक होता है। अगर फसल में प्रोटीन की मात्रा अधिक होगी तो फसल का वजन बढ़ेगा। गेहूं की फसल को पकाई के दौरान नाइट्रोजन की अधिक जरुरत होती है लेकिन आखिरी स्टेज मेंपौधो जमीन से अधिक नाइट्रोजन नहीं ले पाता। इसलिए इस स्टेज में जमीन में खाद डालने की बजाए अगर यूरिया, डी.ए.पी. व जिंक का घोल तैयार कर फसल पर छिड़काव करें तो इससे पौधे के पत्ते को सीधे नाइट्रोजन मिल जाएगा और उसे जमीन से नाइट्रोजन लेने की जरुरत नहीं पड़ेगी। इससे दाने में वजन बनेगा और ज्यादा उत्पादन होगा।
डा. कमल सैनी, ए.डी.ओ.
कृषि विभाग, रामराय


रविवार, 14 अप्रैल 2013

कम्बाइन की बजाए हाथ से गेहूं की कटाई की तरफ बढ़ा जिले के किसानों का रुझान


पशुओं के लिए चारे की कमी के कारण कम्बाइन से गेहूं की कटाई से हुआ किसानों का मोह भंग

नरेंद्र कुंडू
जींद।जिले में पिछले कुछ वर्षों से भले ही कम्बाइन से गेहूं की फसल की कटाई का रकबा बढ़ा हो लेकिन इस वर्ष जिले में कम्बाइन की बजाए हाथ से गेहूं की फसल की कटाई के रकबे में बढ़ौतरी हुई है। इसे किसानों की मजबूरी कहें या पशुओं के लिए चारे की जरुरत जिस कारण जिले के किसानों को कम्बाइन की बजाए हाथ से गेहूं की कटाई करवाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। अगर कृषि विभाग के अधिकारियों की मानें तो किसानों का कम्बाइन से गेहूं की कटाई से मोह भंग होने का मुख्य कारण पशुओं के लिए चारे की जरुरत के साथ-साथ गेहूं के बीज की किस्म में हुआ बदलाव रहा है। 
पिछले कुछ वर्षों से जिले के किसान का रुझान हाथ से गेहूं की फसल की कटाई की बजाए कम्बाइन से गेहूं की कटाई करवाने की तरफ बढ़ रहा था। जिस समय किसानों का रुझान कम्बाइन से गेहूं की कटवाई की तरफ बढ़ा था उस वक्त जिले में गेहूं के बिजाई के कुल क्षेत्र में से 70 प्रतिशत क्षेत्र में गेहूं की 343 किस्म की बिजाई होती थी। 343 किस्म की गेहूं की फसल की बढ़ौतरी काफी अच्छी होती थी। इस कारण कम्बाइन से गेहूं की फसल की कटाई के बाद पशुओं के लिए चारे के लिए भी व्यवस्था ठीक-ठाक हो जाती थी लेकिन पिछले एक-दो वर्ष से गेहूं के बीज की किस्म में बड़ा बदलाव हुआ है। जिले में 343 की बजाए एच.डी. 2851 किस्म की बिजाई में वृद्धि हुई है। इस वर्ष जिले में गेहूं की फसल का कुल रकबा 2 लाख 17 हजार हैक्टेयर है। इस कुल रकबे में से 80 हजार हैक्टेयर में 343 किस्म तथा 80 हजार हैक्टेयर में एच.डी.2851 की बिजाई की गई है। यानि गेहूं के कुल क्षेत्र में से 40 प्रतिशत में 343 किस्म, 40 प्रतिशत में एच.डी. 2851 और बाकी 20 प्रतिशत में गेहूं की अन्य किस्मों की बिजाई की गई है। गेहूं की 343 किस्म की बजाए एच.डी. 2851 किस्म की फसल की बढ़ौतरी कम होती है। कृषि विभाग के अधिकारियों का मानना है कि गेहूं की एच.डी. 2851 किस्म की फसल की बढ़ौतरी कम होने के कारण कम्बाइन से कटाई करवाने के बाद इसका भूसा कम होता है। इससे पशुओं के लिए चारे की पूरी व्यवस्था नहीं हो पाती। एच.डी. 2851 का रकबा बढऩे तथा 343 किस्म का रकबा कम होने के कारण किसानों का रुझान मजबूरन हाथ की कटाई की तरफ बढ़ रहा है। 

क्यों बढ़ा एच.डी. 2851 का रकबा

जिले में पिछले कुछ वर्षों से गेहूं की एच.डी. 2851 किस्म का रकबा लगातार बढ़ता जा रहा है। जबकि 343 किस्म का रकबा कम हुआ है। एच.डी. 2851 के रकबे में बढ़ौतरी का मुख्य कारण यह है कि इस किस्म की बिजाई पछेती होती है। पछेती बिजाई के बावजूद भी इस किस्म से 343 किस्म के बराबर का उत्पादन होता है। जिले में गेहूं की पछेती बिजाई का कारण कपास की फसल का सीजन लम्बा चलना रहा है। कपास की फसल का सीजन लम्बा चलने के कारण गेहूं की बिजाई भी लेट हो पाती है। इसलिए किसान 343 की बजाए एच.डी. 2851 को प्राथमिकता दे रहे हैं।

गेहूं खरीद को लेकर खरीद एजैंसियों ने सख्त किए नियम

गेहूं की खरीद को लेकर खरीद एजैंसियों द्वारा नियम भी सख्त तय किए गए हैं। खरीद एजैंसियों द्वारा गेहूं की फसल में ज्यादा नमी होने पर गेहूं की खरीद में देरी की जाती है। कम्बाइन से गेहूं की फसल की कटाई होने पर गेहूं की फसल में नमी रह जाती है। इससे खरीद एजैंसियां गेहूं खरीद में देरी करती हैं। यह भी एक कारण है कि किसान कम्बाइन की बजाए हाथ से गेहूं की कटाई को प्राथमिकता दे रहे हैं। 

पशुओं के लिए चारे की कमी सबसे मुख्य कारण

जिले में हर वर्ष कम्बाइन से गेहूं की कटाई के रकबे में बढ़ौतरी होने के चलते किसानों के समक्ष पशुओं के चारे की किल्लत भी आड़े आने लगी थी। गेहूं की 343 किस्म की बजाए एच.डी. 2851 की ग्रोथ कम होने के कारण इस किस्म की फसल से भूसा कम निकलता है। कम्बाइन से गेहूं की फसल कटाई के बाद भूसा कम निकलने के कारण पशुओं के लिए पर्याप्त मात्रा में चारे की व्यवस्था नहीं हो पाती है। चारे की कमी के कारण भी किसान हाथ से कटाई को प्राथमिकता देने लगे हैं।
 हाथ से गेहूं की फसल की कटाई करते किसान। 

कम्बाइन की बजाए हाथ से कटाई को प्राथमिकता देने लगे हैं किसान । 

जिले में कुछ वर्षों से किसान हाथ की कटाई की बजाए कम्बाइन से गेहूं की फसल की कटाई को प्राथमिकता देने लगे थे। अब एक-दो वर्षों से जिले में गेहूं की 343 किस्म की बजाए एच.डी. 2851 किस्म की बिजाई का क्षेत्र बढ़ा है। एच.डी. 2851 की पैदावार तो 343 के बराबर ही होती है लेकिन इसकी ग्रोथ कम होती है। कम ग्रोथ होने के कारण भूसा कम होता है। इस कारण पशुओं के लिए चारे की पूरी व्यवस्था नहीं हो पाती। पशुओं के लिए चारे की व्यवस्था के लिए ही किसान कम्बाइन की बजाए हाथ से कटाई को प्राथमिकता देने लगे हैं। 
रामप्रताप सिहाग, उपनिदेशक
कृषि विभाग, जींद


आधुनिकता की भेंट चढ़ रही शादी की परम्पराएं


फिल्मी संगीत की भेंट चढ़ रहे महिलाओं द्वारा शादी में गाए जाने वाले मंगल गीत

नरेंद्र कुंडू
जींद। आज आधुनिकता के इस दौर में बढ़ते पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण हरियाणवी संस्कृति लगातार अपनी पहचान खो रही है। हमारे खान-पान व पहनावे के साथ-साथ इसका प्रभाव अब विवाह-शदियों के दौरान दिए जाने वाले बाने की रीति-रिजवों पर भी तेजी से पड़ रहा है। बाने की रीति-रिवाज को निभाते वक्त सुनाई देने वाले महिलाओं के मंगल गीतों की जगह अब फिल्मी संगीत ने ले ली है। जिस कारण महिलाएं विवाह-शादियों में हरियाणवी गीतों की बजाए फिल्मी गीतों पर थिरकती नजर आती हैं। पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण अब विवाह-शादी के दौरान निभाई जाने वाली हरियाणवी रीति-रिवाज लगातार अपनी पहचान खोती जा रही है।  
हरियाणवी संस्कृति में शादी से पहले बन्ने (दूल्हा) या बन्नी (दुल्हन) के लिए बाने की रिवाज होती थी। इस रिवाज के अनुसार शादी से पहले परिवार के लोगों द्वारा बारी-बारी बन्ना या बन्नी के लिए अपने-अपने घरों पर एक वक्त के खाने की व्यवस्था की जाती थी। हरियाणवी संस्कृति में इसे बाना कहा जाता था। बाने के दौरान एक ही व्यक्ति के घर में पूरे परिवार के लोगों का खाना तैयार किया जाता था। बन्ना या बन्नी को खाना खिलाने के बाद महिलाएं मंगल गीत गाती हुई उन्हें उनके घर तक ले जाती थी। इस दौरान बन्ने या बन्नी के सिर पर लाल चुन्नी रखकर एक थाली रखी जाती थी। थाली में सरसों के तेल का दिया व अन्य सामग्री भी रखी जाती थी। बाने के दौरान महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले गीतों में 'किसियां बाना ए नोंदिया, किसयां के घर जा', 'चालो सांझड़ी ए सांझघर चालो, जिस घर दिवला नित बलै', 'बन्नी हे म्हारी कमरे में घूमै' व 'म्हारे बनड़े का भूरा-भूरा मुखड़ा, ऊपर धार धरी ऐ शेरे की' इत्यादि प्रमुख थे। इसके बाद महिलाएं विवाह-शादी वाले घर में एकत्रित होकर गीत गाती थी और नृत्य करती थी। इनमें 'तेरा दामण सिमादू बनड़ी बोलैगी के ना', 'बन्ना काला कोठ सिमाले रे, अंग्रेजी बटन लगवाले रे', 'पहलां तो पिया दामण सिमादे, फेर जाइए हो पलटल में', 'मेरा दामण धरा री तकियाले में हे री-हे री ननद पकड़ा जाइए', मेरी छतरी के नीचे आ जा, क्यों भिजे कमला खड़ी-खड़ी' इत्यादि प्रमुख थे। बुजुर्ग बताते हैं कि प्राचीन समय से चली आ रही इस रिवाज के पीछे का कारण शादी से पहले लड़के या लड़की को अच्छा खाना खिलाकर शारीरिक रूप से मजबूत करना था। विवाह-शादी में बाने की रिवाज को काफी शुभ माना जाता था। बाने की शुरूआत शादी के दिन से 7 दिन पहले की जाती थी। बाने के दौरान महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले मंगल गीत सुनने वालों के दिल में एक तरह की उमंग सी भर देते थे। बाने की परम्परा को पूरा करते हुए महिलाएं देर रात तक गीत गाती और नृत्य करती थी लेकिन आधुनिकता के इस दौर में पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव ने हरियाणवी संस्कृति को भी अपनी चपेट में ले लिया है। इसमें हमारे खान-पान व पहनावे के साथ-साथ हमारी रीति-रिवाजों को भी काफी हद तक समाप्त ही कर दिया है। आधुनिकता के इस युग में बाने की परम्परा शहरों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों से भी समाप्त होती जा रही है। बाने की परम्परा के दौरान महिलाओं के मंगल गीतों की जगह फिल्मी गीत सुनाई देते हैं। नई पीढ़ी की महिलाएं पुरानी रीति-रिवाजों को भूलती जा रही हैं। अब महिलाएं बाने की परम्परा के दौरान महिलाओं के गीतों की बजाए ज्यादातर फिल्मी गीतों पर ही नृत्य करती नजर आती हैं। इस दौरान फिल्मी गीतों पर महिलाओं का डांस देखने के
 शादी के दौरान डी.जे. पर फिल्मी गीतों पर थिरकती महिलाएं।
लिए काफी संख्या में लोग भी एकत्रित हो जाते हैं। पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण विवाह-शादियों में अब अश्लीलता भी पैर पसारने लगी है।

फेशियल व बलिच ने लिया मटने का स्थान

विवाह-शादी के दौरान पहले बन्ने या बन्नी का रंग निखारने के लिए हल्दी, ज्यों व चने का मिश्रण कर एक लेप तैयार किया जाता था। जिसे मटना कहा जाता था। शादी से कई दिन पहले ही महिलाएं बन्ने या बन्नी को मटना लगाना शुरू कर देती थी। प्राकृतिक रूप से तैयार किया गया है यह लेप बन्ने या बन्नी के रंग को निखारने में काफी कारगर साबित होता था लेकिन आधुनिकता के साथ-साथ मटने का स्थान फेशियल व बलिच ने ले लिया है। अब शादी के दौरान बन्ना या बन्नी मटने का इस्तेमाल करने की बजाए पार्लर में जाकर फेशियल व बलिच करवाने को प्रथमिकता देते हैं। रासायनिक उत्पादों से तैयार किए गए यह प्रौडक्ट एक बार तो भले ही चेहरे पर नूर चढ़ा देते हैं लेकिन बाद में ये चेहरे की रंगत को बिगाड़ देते हैं। 


तारखां में हुए हादसे ने खोली सामान्य अस्पताल में चिकित्सा व्यवस्था की पोल


जहरीला पानी पीने से बीमार लोगों का खुद साथ आए लोगों ने किया उपचार 

उपचार के लिए सामान्य अस्पताल के एमरजैंसी वार्ड में नहीं थे चिकित्सक

नरेंद्र कुंडू
जींद। उचाना के तारखां गांव में जहरीले पानी से एक व्यक्ति की मौत और कई के गंभीर रुप से बीमार हो जाने के हादसे ने शुक्रवार दोपहर जींद के सामान्य अस्पताल में चिकित्सा सुविधाओं की पोल खोल कर रख दी। इतने बड़े हादसे का शिकार हुए लोग जब सामान्य अस्पताल लाए गए तो यहां एमरजैंसी वार्ड में उनके उपचार के लिए चिकित्सक नहीं थे। इसके चलते बीमार लोगों के साथ आए ग्रामीणों को खुद बीमारों का इलाज करना पड़ा। इतना ही नहीं जब अस्पताल में बीमारों को उचित चिकित्सा सुविधा नहीं मिल पाने पर ग्रामीण बीमारों को एम्बुलैंस से रोहतक पी.जी.आई. ले जा रहे थे तो बीमारों को एम्बुलैंस तक पहुंचाने के लिए स्ट्रैचर भी उपलब्ध नहीं करवाई गई। इस कारण बीमारों के साथ आए लोगों ने उन्हें अपनी गोद में उठाकर ही एम्बुलैंस तक पहुंचाया। इतने बड़े हादसे के बाद भी अस्पताल प्रशासन द्वारा बीमारों को समय पर उचित चिकित्सा सुविधा मुहैया नहीं करवाए जाने के कारण अस्पताल प्रशासन की कार्यप्रणाली पर भी सवालिया निशान लग गया है। 

यह था मामला 

उचाना कस्बे के तारखां कोठी गांव निवासी फूलकुमार सहित परिवार के अन्य 8 सदस्यों ने संदिग्ध परिस्थितियों के चलते जहरीला पानी पी लिया था। जहरीला पानी पीने से परिवार के सदस्यों की हालत बिगडऩे लगी थी। इस हादसे में फूलकुमार की रोहतक पी.जी.आई. ले जाते समय रास्ते में ही मौत हो गई थी। जबकि परिवार के अन्य सदस्यों की सेहत खराब हो गई थी। परिवार के सभी लोगों को उपचार के लिए सामान्य अस्पताल लाया गया था। सामान्य अस्पताल में पहले 4 लोगों को पहुंचाया गया। उस समय आपातकालीन में एक डॉक्टर मौजूद था। डॉक्टर ने उक्त मरीजों का इलाज शुरू किया और उन्हें पी.जी.आई. रोहतक रैफर कर दिया। कुछ देर बाद परिवार के ही 4 अन्य पीडि़तों को अस्पताल लाया गया, लेकिन उनका इलाज करने के लिए एमरजैंसी में कोई डॉक्टर मौजूद नहीं था। डॉक्टर व हैल्पर नहीं होने के कारण मरीजों के साथ आए लोगों का पारा चढ़ गया। इस हादसे में फूलकुमार की मौत हो गई तथा फूलकुमार का भाई राजकुमार, कर्ण सिंह, फूलकुमार का पुत्र अजय, पुत्री मधू, सुनिधि, पत्नी सरोज, बहन बिमला, कर्ण सिंह की पुत्री ज्योति की हालत गंभीर है। परिवार के आठों सदस्य पी.जी.आई. में जिंदगी और मौत से जूझ रहे हैं। 
 सामान्य अस्पताल के एमरजैंसी में उपचार के लिए लाए गए मरीज।

बीमारों के साथ आए लोगों ने खुद ही किया उपचार

गांव तारखां के फूलकुमार के परिवार के सदस्यों को गंभीर हालत में उपचार के लिए सामान्य अस्पताल में लाया गया था लेकिन यहां पर बीमारों को समय पर उचित उपचार नहीं मिल पाया। एमरजैंसी में डॉक्टर मौजूद नहीं होने के कारण साथ आए लोग डॉक्टरों को बुलाने के लिए चीख पुकार करते रहे लेकिन वहां उनकी सुनने वाला कोई नहीं थी। बार-बार डॉक्टरों को बुलाए जाने पर भी जब कोई डॉक्टर वहां नहीं पहुंचा तो मरीजों के साथ लोगों ने खुद ही मरीजों का फस्र्ट एड शुरू कर दिया। मरीज के साथ आए गांव के वीरभान व एक अन्य युवक ने चारों मरीजों को पहले प्राथमिक उपचार दिया। ड्रिप से लेकर अन्य जरूरी प्राथमिक उपचार उन्होंने खुद ही किया। 
एमरजैंसी में डॉक्टर नहीं होने के कारण खुद ही बीमारों को प्राथमिक चिकित्सा देते साथ आए लोग।








4 मरीजों के लिए एक ही एम्बुलैंस करवाई गई उपलब्ध

उपचार के लिए सामान्य अस्पताल लाए गए गांव तारखां के फूलकुमार के परिवार के सदस्यों की हालत बेहद गंभीर थी लेकिन सामान्य अस्पताल में बीमारों को समय पर उचित उपचार नहीं मिलने के कारण लगभग आधे घंटे के बाद ही साथ आए लोगों ने चारों को रोहतक पी.जी.आई. ले जाने का निर्णय लिया। पी.जी.आई. ले जाने के कारण उन्होंने अस्पताल प्रशासन से एम्बुलैंस की व्यवस्था की मांग की। हद तो उस वक्त हो गई, जब चारों मरीजों को पी.जी.आई. ले जाने के लिए अस्पताल प्रशासन द्वारा एक एम्बुलैंस की उपलब्ध करवाई गई। इसके बाद गंभीर रूप से बीमार चारों मरीजों को एक ही एम्बुलैंस में डालकर रोहतक पी.जी.आई. के लिए ले जाया गया।

स्ट्रेचर भी नहीं करवाई गई उपलब्ध

उपचार के लिए सामान्य अस्पताल में लाए गए कई मरीजों की हालत तो इतनी खराब थी कि वह स्वयं खड़े भी नहीं हो पा रहे थे। मरीजों को प्राथमिक उपचार दे रहे गांव के ही 2 युवकों ने मरीजों को उठा-उठाकर एम्बुलैंस तक पहुंचाया। मरीजों को एम्बुलैंस तक पहुंचाने के लिए अस्पताल प्रशासन द्वारा स्टे्रचर भी उपलब्ध नहीं करवाई गई। यहां तक कि आपातकालीन में मौजूद अन्य सरकारी कर्मचारी भी इलाज कराने में किसी प्रकार की सहायता करते नजर नहीं आए। जब उनसे इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि जब गांव वाले खुद ही प्राथमिक उपचार में लगे हैं तो वह हाथ क्यों लगाएं?
बीमारों को पी.जी.आई. ले जाने के लिए एम्बुलैंस में ले जाते साथ आए लोग।

टी.बी. मरीज को भी नहीं मिला उपचार

सामान्य अस्पताल में चिकित्सकों की लापरवाही का आलम यह है कि यहां शुक्रवार अल सुबह से उपचार के लिए आए टी.बी. के मरीज की भी डॉक्टरों ने सुध नहीं ली। सामान्य अस्पताल में उपचार के लिए पहुंचे नरवाना निवासी नरेश ने बताया कि वह टी.बी. का मरीज है और वह अपने इलाज के लिए अस्पताल आया था। नरेश ने बताया कि सुबह जब वह अपने उपचार के लिए 
बीमार बच्ची को पी.जी.आई. ले जाने के लिए गोद में उठाए एम्बुलैंस में ले जाती साथ आई महीला। 
डॉक्टर से मिला तो डॉक्टर ने उसे एक्स-रे लेकर आने को कहा। नरेश ने बताया कि जब वह एक्स-रे करवाकर दोबारा से चिकित्सक के पास पहुंचा तो वहां पर उसे कोई डॉक्टर नहीं मिला। नरेश ने बताया कि वह अपने उपचार के लिए सुबह से ही डॉक्टर के इंतजार में यहां बैठा हुआ है लेकिन यहां कोई भी चिकित्सक उसकी सुध नहीं ले रहा है। 

सामान्य अस्पताल में डॉक्टरों द्वारा कोई सुनवाई नहीं करने के बाद आपबीती सुनाता डी.बी. पेसैंट।









खून से लाल हो रही है रेल की पटरियां


हर माह बढ़ रही है रेलवे ट्रैक पर मरने वालों की संख्या 

नरेंद्र कुंडू
जींद। जिले का रेलवे ट्रैक हर माह खून से लाल हो रहा है। जिंदगी से परेशान लोग मौत को गले लगाने के लिए रेलवे ट्रैक को चून रहे हैं। ट्रेन के आगे कूद कर आत्महत्या करने वालों का आंकड़ा साल दर साल बढ़ता जा रहा है। अकेले वर्ष 2013 में पिछले 3 माह में ही ट्रेन के आगे कूद कर आत्महत्या करने वालों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। रेलवे ट्रैक पर आत्महत्या करने वालों की संख्या में हर माह 2 से 3 व्यक्तियों की संख्या बढ़ रही है। रेलवे ट्रैक पर आत्महत्या करने वालों में महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों की संख्या काफी ज्यादा है। रेलवे ट्रैक पर आत्महत्या के बढ़ते मामले जी.आर.पी. के लिए भी सिर दर्द बन रहे हैं। जी.आर.पी. को मृतकों की पहचान व उसके परिजनों का पता लगाने के लिए खाक छाननी पड़ रही है।
आज भाग दौड़ व टैंशन भरी ङ्क्षजदगी से परेशान होकर लोग अपने जीवन से मुहं मोड़ रहे हैं। टैंशन भरी जिंदगी से छुटकारा पाने के लिए लोग रेलवे ट्रैक को माध्यम बना रहे हैं। इसलिए ट्रेन के आगे कूद कर एक ही झटके में ङ्क्षजदगी से छुटकारा पाना चाहते हैं। अगर पिछले 3 वर्षों के आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो रेलवे ट्रैक पर आत्महत्या करने वालों का ग्राफ लगातार ऊपर जा रहा है। वर्ष 2011 में रेलवे ट्रैक पर जान देने वालों की संख्या लगभग 110 के करीब थी, तो वर्ष 2012 में यह आंकड़ा 110 से बढ़कर 133 पर पहुंच गया। वर्ष 2013 में पिछले 3 माह में रेलवे ट्रैक पर आत्महत्या करने वालों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है। इन 3 माह में हर माह 2 से 3 व्यक्तियों का आंकड़ा बढ़ा है। इनमें महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों की संख्या ज्यादा है। जनवरी माह में रेल की चपेट में आने के कारण 5 लोगों की मौत हुई है, जिनमें पांचों पुरुष थे। पांचों मामलों में 3 आत्महत्या के थे, जबकि 2 लोगों की मौत स्वभाविक रुप से हुई थी। फरवरी माह में ट्रेन की चपेट में आने से 7 लोग काल का ग्रास बने। इनमें 5 पुरुष तथा 2 महिला थी। सातों मामलों में 2 मामले आत्महत्या के तथा 5 मामले दुर्घटना के थे। मार्च माह में कुल 8 लोग ट्रेन की चपेट में आने के कारण जिंदगी से हाथ धो बैठे। इनमें 6 पुरुष व 2 महिलाएं थी। आठों मामलों में 5 आत्महत्या के तथा 3 मामले दुर्घटना के थे। लगातार बढ़ रहे आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो यह साफ हो रहा है कि लोग तनाव भरे जीवन से छूटकारा पाने के लिए ट्रेन को आसान साधन मानते हैं। रेलवे ट्रैक पर बढ़ते हादसे जी.आर.पी. के लिए भी सिरदर्द बनते हैं। जी.आर.पी. को मृतक की पहचान व उसके परिजनों का पता लगाने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है।

72 घंटे तक रख सकते हैं शव 

रेलवे ट्रैक पर लावारिस शव मिलने पर जी.आर.पी. द्वारा पंचनामा भरने के बाद शव का पोस्टमार्टम करवाया जाता है। शव मिलने के बाद शव की पहचान के लिए जिला पुलिस को वायरलैस द्वारा सूचना दी जाती है। शव मिलने पर शव को 72 घंटे तक सुरक्षित रखा जाता है। इसके बाद उनकी पहचान नहीं होने पर शव का दांह संस्कार के लिए मार्कीट कमेटी को सौंप दिया जाता है।

लावारिश शव बनते हैं जी.आर.पी. के गले की फांस

जी.आर.पी. को शव मिलने पर उनकी पहचान नहीं होने पर जी.आर.पी. को शव की पहचान के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है। पिछले 3 माह में रेलवे ट्रैक पर मरने वाले 20 लोगों में से अभी भी 4 शवों की पहचान नहीं हो पाई है। जिस कारण जी.आर.पी. ने शवों को लावारिश घोषित कर शवों को दहा संस्कार के लिए मार्कीट कमेटी को सौंप दिया है।

किया जाता है प्रचार-प्रसार

रेलवे ट्रैक पर आत्महत्या के मामलों में वृद्धि हो रही है। आत्महत्या के मामलों में वृद्धि होने के कारण जी.आर.पी. को भी काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। स्टाफ की कमी के चलते जी.आर.पी. पर काम का बोझ भी बढ़ जाता है। जी.आर.पी. द्वारा शवों की पहचान के लिए काफी प्रचार-प्रसार भी किया जाता है। इसके बाद अगर शव की पहचान नहीं हो पाती है तो शव का दहा संस्कार के लिए  मार्कीट कमेटी को सौंप दिया जाता है।
विक्रम सिंह, एस.एच.ओ.
जी.आर.पी., जींद

लोगों के दिल में पनप रही है गलत धरना 

ट्रेन सबसे पुराना साधन है। पुराने समय में ट्रेन की चपेट में आने से कुछ हादसे होने के बाद ट्रेन की तरफ लोगों की गलत धारण भी जुड़ गई है। जब किसी व्यक्ति का जिन्दगी से मोह उठ जाता है तो उसके मन में मौत को लेकर किसी तरह का डर नहीं रहता है। इस तरह की परिस्थिति में व्यक्ति सिर्फ यह सोचता है कि आत्महत्या के दौरान संयोग से कहीं उसकी मौत नहीं हुई और उसके शरीर का कोई अंग भंग हो गया तो उसकी जिंदगी बेकार हो जाएगी। अन्य वाहनों की बजाए ट्रेन की चपेट में आने से मौत जल्दी हो जाती है। इसलिए आत्महत्या के लिए लोग ट्रेन को ही सबसे ज्यादा चुनते हैं, क्योंकि ट्रेन की चपेट में आने के बाद बचने के चांस कम होते हैं। जीवन भगवन का अनमोल तोहफा है छोटी-मोटी परेसनियों के कारण इसे बर्बाद नहीं करना चाहिए
नरेश जागलान
 नरेश जागलान का फोटो

मनोचिकित्सक, जींद


रेलवे जंक्शन की सुरक्षा में सेंध

जंक्शन पर आने वाले यात्रियों के लिए नहीं कोई खास व्यवस्था 


नरेंद्र कुंडू
जींद। रेल किराये में वृद्धि के बावजूद भी जींद के रेलवे जंक्शन पर यात्रियों के लिए कोई खास व्यवस्था का इंतजाम नहीं हो पाया है। यहां सबसे बड़ा खतरा तो सुरक्षा व्यवस्था को है। शहर के रेलवे जंक्शन की सुरक्षा व्यवस्था में पूरी तरह से सेंध लग चुकी है। रेलवे जंक्शन पर सुरक्षा के कोई पुख्ता प्रबंध नहीं हैं। स्टेशन के प्रवेश द्वारा पर रखा डोर मैटलडिडक्टर शोपिस बना हुआ। इतना ही नहीं रेलवे स्टेशन पर बनी जी.आर.पी. व आर.पी.एफ. की चैकपोस्टों के गेटों पर भी ताले लटकते रहते हैं। ऐसे हालात में रेलवे जंक्शन पर आने वाले यात्रियों व जंक्शन की सुरक्षा का अंदाजा स्वयं ही लगाया जा सकता है। इसके अलावा स्टेशन पर सीनियर सिटीजन के लिए अलग से टिकट खिड़की की भी कोई व्यवस्था नहीं है। 

रेलवे जंक्शन पर सुरक्षा व्यवस्था का आलम यह है कि यहां कोई भी अपराधिक प्रवृति का व्यक्ति किसी भी 
जींद रेलवे जंक्शन का फोटो। 
घटना को अंजाम देकर आसानी से बच कर निकल सकता है। जंक्शन की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर टीम ने जब जंक्शन का मुआयना किया तो देखा कि रेलवे सुरक्षा बल के कार्यालय के बाहर लावारिश हालता में एक सामान से भरा बैग रखा हुआ था। लावारिश सामान का यह बैग लगभग 1 घंटे तक इसी अवस्था में कार्यालय के बाहर रखा रहा लेकिन किसी भी पुलिस कर्मी ने यहां इस सामान की तलाशी लेने की जहमत नहीं उठाई। 


 रेलवे जंक्शन पर खाली पड़ी पूछताछ कार्यालय की खिड़की। 

 रेलवे जंक्शन के गेट पर खराब अवस्था में एक तरफ रखा डोर मैटलडिडक्टर। 

पूछताछ खिड़की से नदारद रहते हैं कर्मचारी

रेलवे जंक्शन पर सबसे बुरा हाल तो पूछताछ खिड़की का है। यहां यात्रियों को ट्रेन इत्यादि की जानकारी के देने के लिए बनाई गई पूछताछ खिड़की से ज्यादातर समय कर्मचारी नदारद रहते हैं। खिड़की पर कर्मचारियों के मौजूद नहीं रहने के कारण यात्रियों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इतना ही नहीं फोन के माध्यम से यात्रियों को गाडिय़ों की जानकारी देने के लिए जारी किए गए नम्बर पर भी यात्रियों को गाडिय़ों की जानकारी नहीं मिल पाती है। यात्री पूछताछ के नम्बर पर काल पर काल करके परेशान हो जाते हैं लेकिन पूछताछ नंबर से किसी तरह का कोई जवाब नहीं मिल पता है। 

सीनियर सिटीजन के लिए नहीं है अलग खिड़की

रेलवे जंक्शन पर यात्रियों के लिए टिकट लेने के लिए तो 2 खिड़कियां हैं लेकिन यहां सीनियर सिटीजन के लिए टिकट लेने के लिए कोई अलग से खिड़की की व्यवस्था नहीं की गई है। वरिष्ठ नागरिकों के लिए अलग से खिड़की नहीं होने के कारण उन्हें टिकट लेने के लिए कई बार युवाओं से उलझना पड़ता है। वरिष्ठ नागरिक पुरुषोतम, रामलाल, मोहनलाल, दयाकिशन, सुरजभान आदि ने बताया कि वरिष्ठ नागरिकों के लिए अलग से खिड़की होनी चाहिए। 

नियमित रूप से चिकित्सालय खोलने की मांग

जींद जंक्शन पर नियमित रुप से चिकित्सालय खोलने की मांग भी यात्रियों द्वारा की जा रही है। रेलयात्री शमशेर कश्यप, फतेहचंद, रमन अरोड़ा व अश्वनी का कहना है कि रेलवे जंक्शन पर नियमित रुप से चिकित्सालय खोला जाना चाहिए ताकि रेलवे परिसर में दुर्घटनाग्रस्त होने वाले यात्रियों को तत्काल प्राथमिक उपचार दिया जा सके।

जनता खाने की भी नहीं है व्यवस्था

रेलवे सुरक्षा बल के कार्यालय के बाहर रखा लावारिश सामान।
रेलवे मंत्रालय के निर्देशानुसार हर रेलवे स्टेशन पर यात्रियों को सस्ता व अच्छा भोजन उपलब्ध करवाना जरुरी है, ताकि सफर के दौरान यात्रियों को कम कीमत पर अच्छा खाना मिल सके लेकिन रेलवे जंक्शन पर इस तरह का कोई प्रावधान नहीं है। रेलवे जंक्शन पर जनता खाने की कोई व्यवस्था नहीं है। 

नियमित रुप से लगाई जाती है कर्मचारियों की ड्यूटी।

पूछताछ खिड़की पर नियमित रुप से कर्मचारियों की ड्यूटी लगाई जाती है। यात्रियों की सुविधा के लिए स्टेशन पर ट्रेनों के टाइम टेबल से सम्बंधित चार्ट भी लगाए गए हैं। सीनियर सिटीजन के लिए अलग से खिड़की की व्यवस्था नहीं है लेकिन खिड़की पर मौजूद कर्मचारियों को निर्देश जारी किए गए हैं कि टिकट वितरण के दौरान वरिष्ठ नागरिकों को प्राथमिकता दी जाए। 
अनिल यादव, स्टेशन अधीक्षक
रेलवे जंक्शन, जींद

स्टाफ की है कमी

खाली पड़ी रेलवे सुरक्षा बल की चैक पोस्ट।
जी.आर.पी. के पास स्टाफ की काफी कमी है। इस वक्त जी.आर.पी. के पास सिर्फ 20 पुलिस कर्मी मौजूद हैं। इनमें से कुछ पुलिस कर्मी कागजी कार्रवाई का कामकाज देखते हैं तथा कुछ सुरक्षा व्यवस्था का जिम्मा संभालते हैं। जी.आर.पी. को कम से कम 20 पुलिस कर्मियों की ओर जरुरत है। स्टाफ की कमी के चलते चैक पोस्टों पर पुलिस कर्मियों की स्थाई ड्यूटी नहीं लगाई जा रही है। ट्रेनों के समय पर पुलिस कर्मी रूटीन में ट्रेनों तथा यात्रियों की चैकिंग करते हैं। 
विक्रम सिंह, इंचार्ज
जी.आर.पी., जींद 






सोमवार, 18 मार्च 2013

विद्यार्थियों पर हावी हो रहा परीक्षा का भूत


अच्छे अंकों की चाहत में ले रहे यादाशत बढ़ाने वाली दवाओं का सहारा 

नरेंद्र कुंडू 
जींद। परीक्षा का भूत विद्यार्थियों पर इस कदर हावी हो चुका है कि वे अच्छे अंक प्राप्त करने, याददाशत बढ़ाने और एनर्जी लेवल मेनटेन रखकर तनाव कम करने के लिए दवाओं पर निर्भर हो चुके हैं। कम्पीटीशन का दौर है, लिहाजा वे पीछे नहीं रहना चाहते। आगे निकलने की होड़ में वे अपने ही स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। उन्हें नहीं पता कि एनर्जी बढ़ाने के लिए जिन दवाओं का सहारा लेने की वे नादानी कर रहे हैं, वही उनके भविष्य को गहन अंधकार में डूबो देगी। ऎसी दवाओं का सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव दिमाग व लीवर पर पड़ता है। तनाव से मुक्ति दिलाने वाला यह धीमा जहर धीरे-धीरे उनकी रगों में फैलकर खोखला कर रहा है। समय की मांग है कि लिहाजा अभिभावकों का दबाव भी कम नहीं है। उज्जवल भविष्य के लिए परीक्षा में अच्छे अंक लाने की अनिवार्यता जाहिर है। यह महत्वाकांक्षा और प्रतिस्पर्धा छात्रों के रास्ते का कांटा बन गई है। इस कारण वे गहरे अवसाद में जा रहे हैं। तनाव के चलते याद किया टॉपिक भी भूल रहे हैं। समस्या से निजात पाने के लिए वे बाजारों का रुख करते हैं और याददाशत और एनर्जी लेवल बढ़ाने वाली दवाइयों की मांग कर रहे हैं। अच्छी काउंसलिंग की कमी के कारण विद्यार्थी पथभ्रष्ट होकर अपनी बची-खुची प्रतिभा भी खो रहे हैं। दवा निर्माता कंपनियां भी अवसर को भुनाने से नहीं चुक रही हैं और अपनी जेब भरने के चक्कर में पहले तो हौव्वा पैदा करती हैं, फिर उनसे निजात दिलाने के लिए प्रलोभनों के जाल में फंसा लेती हैं। हालांकि तनाव कम करने तथा याददाशत बढ़ाने की दवाएं प्राय: प्रतिबंधित होती हैं और इन्हें बिना डॉक्टर की सलाह के नहीं लिया जा सकता। इसके बावजूद हर मैडीकल स्टोर पर इन्हें बेहिचक बेचा जा रहा है। परीक्षा करीब आते ही याददाशत बढ़ाने वाली दवाइयों के खरीदारों की संख्या में इजाफा हो जाता है। शहर में याददाशत के साथ-साथ एनर्जी बढ़ाने वाले पाउडर, कैप्सूल व सीरप की बिक्री भी 40 फीसदी तक बढ़ गई है। मेमोरी में इजाफा करने के चाह्वान विद्यार्थिओं  में सर्वाधिक संख्या साइंस संकाय या प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रतिभागियों की होती है। 

बढ़ जाती हैं बीमारियों की सम्भावना

 डा. राजेश भोला का फोटो।
याददाश्त बढ़ाने की कोई दवाइया नहीं आती। दवा कंपनियां झूठा प्रचार कर लोगों को गुमराह करती हैं। इस तरह के भ्रमक प्रचार से बचना चाहिए। इस तरह की दवाइयां शॉर्ट टर्म के लिए भले ही फायदा करती हों, लेकिन इनके लांग टर्म साइड इफेक्ट काफी देखे जा रहे हैं। वैज्ञानिक तौर पर ये दवाइयां अपडेट नहीं होती, साथ ही इनमें स्टीरॉयड की मात्रा रहती है, जिससे ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, चिड़चिड़ापन होना, नींद नहीं आना व आंखें भारी होना तथा हार्ट अटैक की संभावना बढ़ जाती हैं। अंदर ही अंदर इन दवाइयों का धीमा जहर शरीर को खोखला कर देता है। इसका सबसे ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव दिमाक व लीवर पर पड़ता है। 
डा. राजेश भोला, डिप्टी सिविल सर्जन
सामान्य अस्पताल, जींद


नरेश जागलान का फोटो। 
इस बारे में मनोविज्ञानिक नरेश जागलान का कहना है कि परीक्षा का समय विद्यार्थियों के लिए बेहद संवेदनशील होता है, इसलिए अभिभावकों को चाहिए कि उनपर पढ़ाई का जरुरत से अधिक दबाव नहीं डालें बल्कि उन्हें प्रोत्साहित करने का प्रयास करें। अभिभावक बच्चों के साथ मित्रवत व्यवहार बनाएं ताकि वे तनावमुक्त होकर परीक्षा दे सकें। अभिभावक अपने बच्चों की मानसिक क्षमता को समझें। दूसरे के बच्चों से अपने बच्चों की तुलना नहीं करें। बच्चों को चाहिए कि वे परीक्षा से भयभीत नहीं हों। परीक्षा से भयभीत होकर कोई गलत कदम नहीं उठाएं। जिंदगी अनमोल है और परीक्षा उनकी इस मूल्यवान जिंदगी का ही एक हिस्सा है। परीक्षा तो केवल बच्चे की एक वर्ष की पढ़ाई को मापने का पैमाना है। परीक्षा की सफलता तथा असफलता से जीवन की खुशहाली और कामयाबी को नहीं मापा जा सकता। 

परीक्षा के दौरान इन बातों का ध्यान रखें विद्यार्थी। 

1. परीक्षा को जीवन का हिस्सा मानें।
2. लंबी पढ़ाई की बजाए छोटे-छोटे ब्रेक लेकर पढ़ाई करें। 
3. बड़ी-बड़ी बुकों की बजाए छोटे-छोटे नोट्स तैयार कर पढ़ाई करें। 
4. परीक्षा में दूसरों की नकल करने से बचें और खुद की काबलियत के अनुसार जवाब दें। 
5. समय से पहले परीक्षा स्थल पर पहुंचे। 
6. हड़बड़ाहट में परीक्षा ना दें, परीक्षा शुरू करने से पहले 5 मिनट पेपर को अच्छी तरह पढ़ें।
7. सवाल के जवाब के मुताबिक हर सवाल का समय निश्चित करें। 
8. विशेष प्वाइंटों को अंडर लाइन या बोल्ड करें। 
9. बुक्स की बजाए सह-समूह में डिस्कस करें।
10. पढ़ाई से उबने पर शरीर और मन को रिफरेश करें। 
11. मैडीटेशन और हल्की योगा जरुर करें। 
12. पानी ज्यादा पीएं लेकिन खाना ज्यादा नहीं खाएं। 
13. पढ़ाई करने के 48 घंटे तक एक बार आवश्यक रूप से रिवाइज करें। 
14. परीक्षा से पहले पूर्ण रूप से आराम कर के जाएं। 
15. परीक्षा से सम्बंधित आवश्यक सामग्री पहले दिन तैयार करें। 
16. ऐसे गेम नहीं खेलें, जिनसे शरीर को थकावट महसूह हो। 
17. अंतरद्वंद में ना जाएं, अपने ऊपर विश्वास रखें।
18. किसी भी प्रकार की दवा का प्रयोग नहीं करें। 

अभिभावक और अध्यापक क्या करें

1. अभिभावकों व अध्यापकों को आपसी तालमेल रखना चाहिए। 
2. बच्चों पर पढ़ाई के लिए अनावश्यक दबाब नहीं बना चाहिए। 
3. परीक्षा के दौरान अभिभावकों को बच्चों की विशेष देखभाल करनी चाहिए। 
4. बच्चों को मनपसंद खाना देना चाहिए और उनकी दिनचार्य का ख्याल रखना चाहिए। 
5. किसी अन्य अनावश्यक कार्य में बच्चों को शामिल नहीं करें। 
6. बच्चों के साथ तालमेल बनाकर उनकी सभी बातों को शेयर करें। 
7. परीक्षा के प्रति बच्चों के मन में भय पैदा नहीं करें। 

रविवार, 3 फ़रवरी 2013

क्या केवल फांसी या कठोर कानून से रूक जाएंगे बलात्कार के मामले?


लोगों को भी समझनी होगी अपनी जिम्मेदारी और महिलाओं के प्रति अपने नजरिए में लाना होगा बदलाव 

नरेंद्र कुंडू
जींद।  आज देश में बढ़ रही रेप तथा गैंगरेप की घटनओं के कारण विश्व में देश का सिर शर्म से झुक गया है। दिल्ली गैंगरेप की घटना ने तो महिलाओं की अंतरआत्मा को बुरी तरह से जख्मी कर सुरक्षा व्यवस्था पर सवालिया निशान लगा दिया है। चारों तरफ घटना की पूर जोर ङ्क्षनदा हो रही है। देश का हर नागरिक इस घटना से आहत है। देश की राजधानी में घटीत इस घिनौने कांड के बाद जनता में आक्रोष की लहर दौड़ गई है। इस घटना के लिए देश का हर नागरिक सरकार को कोस रहा है। विपक्षी दलों ने भी बलात्कार जैसे संवेदनशील मुद्दों की आंच पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने का काम किया है। दूसरों को जगाने वाली दामिनी जिंदगी की जंग हार कर खुद हमेशा के लिए सो गई है। आज देश का हर व्यक्ति दामिनी को मौत की नींद सुलाने वालों के लिए फांसी की सजा तथा रेप की घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए कठोर कानून की मांग कर रहा है लेकिन जरा सोचिए क्या बलात्कारियों को फांसी देने या बलात्कारियों के खिलाफ कठोर कानून बनाने मात्र से ही देश में बलात्कार की घटनाएं रूक जाएंगी? शायद नहीं। किसी को मौत का डर दिखाने से इस तरह की घटनाओं पर अंकुश लगापाना संभव नहीं है। क्योंकि मौत किसी समस्या का समाधान नहीं है। मृत्युदंड देकर हम पापी को मार सकते हैं पाप को नहीं। इस बुराई को अगर जड़ से उखाडऩा है तो प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी और इस बुराई को जड़ से कुरेदने के लिए इस मसले पर गंभीरता से विचार करना होगा लेकिन हम अपनी जिम्मेदारी कहां समझ रहे हैं। क्योंकि किसी ने भी इस बुराई को जड़ से खत्म करने पर विचार-विमर्श करने की बजाए दोषियों को फांसी देने और कठोर कानून की ही मांग की है या फिर विरोध प्रदर्शन कर या कैंडल मार्च निकाल कर अपने कर्त्तव्य से इतिश्री कर ली है। केवल सड़कों पर केंडल मार्च निकालना, प्रदर्शन करना या सरकार को इन सब के लिए दोषी ठहराना हमारी जिम्मेदारी नहीं है। इस तरह की घटनाओं के लिए सरकार और हम बराबर के दोषी हैं, क्योंकि हम खुद ही इस तरह के अपराधों को बढ़ावा देने के लिए जमीन तैयार कर रहे हैं और इसमें सरकार हमारा सहयोग कर रही है। आज टी.वी. चैनलों तथा अन्य प्रचार-प्रसार के माध्यम से खुलेआम अश्लीलता परोसी जा रही है और हम सब मिलकर बड़े मजे से इसका आनंद ले रहे हैं। सरकार भी इस तरह के कार्यक्रमों को रोकने में किसी तरह की सख्ती नहीं दिखा रही है। आज हमारी संस्कृति और मनोरंजन के साधन पूरी तरह से अश्लीलता  की भेंट चढ़ चुके हैं। हमारे प्रचार-प्रसार के साधनों के माध्यम से हमारी प्रजनन क्रियाओं के अंगों को हमारे सामने मनोरंजन के साधन के रूप में पेश किया जा रहा है। इससे युवा पीढ़ी पथभ्रष्ट होकर प्रजनन क्रियाओं के अंगों को मनोरंजन का साधन समझकर इस तरफ कुछ ज्यादा ही आकर्षित  हो रही है। इसलिए कहीं ना कहीं हमारे मनोरंजन के साधन भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। 

फांसी या कठोर कानून नहीं किसी समस्या का समाधान 

किसी को फांसी देना या कठोर कानून किसी समस्या का समाधान नहीं है। जरा सोचिए क्या 302 के अपराधी यानि किसी की हत्या करने वाले व्यक्ति को कानून में फांसी देने का प्रावधान नहीं है। जब हत्यारे को कानून में फांसी देने का प्रावधान है और इस कानून के तहत मुजरिमों को फांसी की सजा दी भी जा चुकी है तो क्या देश में हत्या होनी बंद हो गई हैं, नहीं। तो फिर हम यह कैसे सोच सकते हैं कि बलात्कारियों को फांसी देने से देश में बलात्कार रूक जाएंगे। मैं बलात्कारियों को फांसी नहीं देने या इस तरह के अपराधियों के लिए कठोर कानून नहीं बनाने का पक्षधर नहीं हूं लेकिन यह भी तो सच है कि केवल फांसी देने या कठोर कानून से इस तरह की घटनाओं को रोक पाना संभव नहीं है। मैं तो अगर पक्षधर हूं तो केवल इस बात का कि इस तरह की घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए इन घटनाओं की तह तक जाने की जरूरत है। क्योंकि हमारी कानून प्रणाली काफी लचिली है और कठोर कानून बनाने के बाद जहां उसका सद्उपयोग होगा, उससे कहीं ज्यादा उसका दुरुपयोग भी होगा। जैसा की दहेज उन्मूलन कानून में हो रहा है। 

क्यों बढ़ रही हैं रेप की घटनाएं

हमारे लिए कितने दुख की बात है कि भारत जैसे देश में हर 18 मिनट में एक बलात्कार की घटना घट रही है। इसका मुख्य कारण अश्लीलता की भेंट चढ़ रहे हमारे मनोरंजन के साधन हैं। आज हमारे पास मनोरंज के अच्छे साधन होने के बावजूद भी हमारे पास मनोरंजन की अच्छी सामग्री नहीं है। बढ़ रही अश्लीलता तथा दूषित हो रहे हमारे खान-पान से हमारी मानसिक प्रवृति में काफी परिर्वतन हो चुका है। नैतिक मूल्य में काफी गिरावट हुई है। हम अपने प्रजनन के अंगों को मनोरंजन के रूप में देखने लगे हैं। हमारा रहन-सहन काफी बदल गया है, हमारा पहनावा काफी उतेजक हो चुका है। हमारी शिक्षा प्रणाली सही नहीं है, जिससे किशोर अवस्था में होने वाले शारीरिक परिवर्तन के दौरान किशोरों को उचित मार्गदर्शन नहीं मिल पाता और वे अपने पथ से भटक जाते हैं। 

किस तरह हो सकता है समस्या का समाधान 

अगर बलात्कार की घटनाओं पर रोक लगानी है तो केवल फांसी या कठोर कानून का सहारा लेने की बजाए इसकी जड़ों को कुरेदना होगा। हमें सबसे पहले तो अपने मनोरंजन के साधनों में परिवर्तन करना होगा। हमें अपने मनोरंजन के साधनों में अश्लीलता गीतों की बजाए देशभक्ति गीत, हमारी संस्कृति से जुड़े गीत, हमारी दिनचर्या से जुड़े गीत, वीरता, बहादुरी के किस्सों से ओत-प्रोत नाटक, फिल्मों को शामिल करना होगा। ताकि खाली समय में हम इस तरह के गीत या फिल्में देखकर अपने मनोरंजन के साथ-साथ इससे प्रेरणा ले सकें और हमारा दिमाक गलत दिशा में जाने से बच सके। इसके बाद बात आती है दंड की, तो दंड कठोर होने के साथ-साथ सामाजिक तौर पर निष्पक्ष रूप से दिया जाए, जैसा की कई बार पंचायतों द्वारा दिया जाता है। क्योंकि इस तरह का दंड अपराधियों को सबक सिखाने में काफी कारगर सिद्ध होता है और समाज में बेज्जती के भय से लोग गलत काम को अंजाम देने से हिचकते हैं। हमें हमारे रहन-सहन तथा पहनावे में भी थोड़ा परिवर्तन करना चाहिए। हमें उतेजक पहनावे से परहेज करना चाहिए। हमारी शिक्षा प्रणाली में भी परिवर्तन की जरूरत है। नैतिक शिक्षा के साथ-साथ शारीरिक शिक्षा पर भी जोर दिया जाना चाहिए। खासकर किशोर अवस्था में होने वाले शारीरिक परिवर्तन तथा उससे पैदा होने वाली समस्याएं और उनके समाधान के बारे में भी विस्तार से जानकारी दी जाए। हमें अपने बच्चों के साथ कठोर व्यवहार की बजाए नर्म तथा दोस्ताना रवैया अपना चाहिए तथा उनकी परेशानियों, समस्याओं को नजर अंदाज करने की बजाए उन्हें उसके समाधान के बारे में बताना चाहिए। इसके अलावा राजनेताओं को भी चाहिए कि वे किसी भी प्रकार की सामाजिक समस्या को सत्तासीन पार्टी के खिलाफ हथियार बनाने की बजाए उसके समाधान के लिए सरकार की मदद करे। और इस समस्या के समाधान में सबसे अहम योगदान समाज का हो सकता है। समाज को लड़कियों और महिलाओं के प्रति अपना नजरिया बदलना होगा।

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2013

बिना कीटों की पहचान के जहर से मुक्ति असंभव : डी.सी.


राजपुरा भैण में किसानों ने मनाया किसान खेत दिवस

नरेंद्र कुंडू 
जींद। उपायुक्त डा. युद्धबीर सिंह ख्यालिया ने कहा कि फसल में पाए जाने वाले शाकाहारी और मासाहारी कीटों की पहचान तथा उनके क्रियाकलापों की जानकारी जुटाकर ही थाली को जहरमुक्त बनाया जा सकता है। बिना कीटों की पहचान के जहर से मुक्ति पाना असंभव है। जींद जिले के लगभग एक दर्जन गांवों के किसानों ने कीट ज्ञान की जो मशाल जलाई है आज उसका प्रकाश जिले ही नहीं बल्कि प्रदेश से बाहर भी पहुंचने लगा है। इसकी बदौलत ही आज पंजाब जैसे प्रगतिशील प्रदेश के किसान भी जींद जिले में कीट ज्ञान हासिल करने के लिए आ रहे हैं। उपायुक्त जींद जिले के राजपुरा भैण गांव में किसान खेत दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में बतौर मुख्यातिथि बोल रहे थे। 
उपायुक्त ने कहा कि जींद जिले में पिछले कई वर्षो से किसान खेत पाठशालाएं चलाई जा रही हैं। इन पाठशालाओं में किसानों ने अपने बलबुते शाकाहारी और मांसाहारी कीटों की खोज कर एक नई क्रांति को जन्म दिया है। शाकाहारी कीट पौधों की फूल-पतियां खा कर अपना जीवनचक्र चलाते हैं, तो मासाहारी कीट शाकाहारी कीटों को खाकर वंशवृद्धि करते हैं। प्रकृति ने जीवों के बीच संतुलन बनाने के लिए यह एक अजीब चक्र बनाया है। इसलिए हमें कभी भी प्रकृति के साथ छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए। डी.सी. ने कहा कि किसानों की इस अद्वितीय खोज को पूरे जिला के किसानों को अपनाने के लिए कार्य योजना तैयार की है। इसके लिए कई गांवों में इस प्रकार की किसान खेत दिवसों का आयोजन किया जाएगा। उन्होंने किसानों की मांग पर गांवों में प्रशिक्षण की व्यवस्था के लिए किसानों को कार्य योजना तैयार करने के लिए कहा और उसके लिए पर्याप्त धनराशि उपलब्ध करवाने की बात कही। उप कृषि निदेशक डा. रामप्रताप सिहाग ने उपायुक्त का स्वागत किया। अपनी तरह के इस किसान खेत दिवस के मौके पर उपायुक्त ने कृषि विभाग के ए.डी.ओ. डा. सुरेन्द्र दलाल के प्रयासों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। किसान बलवान सिंह ने बताया कि उनके ये कीट कमांडो किसान भले ही ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हों, लेकिन इन्होंने खेत पाठशालाओं में 163 किस्म के मासाहारी तथा 43 किस्म के शाकाहारी कीटों की पहचान की है। इनमें 104 किस्म के परभक्षी, 21 परपेटिए, 6 किस्म के परअंडिए, 4 किस्म के परप्यूपिए, 2 किस्म के परजीवी, 21 किस्म की मकड़ी, 5 किस्म के रोगाणु हैं। इसके अलावा 43 किस्म के शाकाहारी कीट हैं। मासाहारी कीट फसल में प्राकृतिक तौर पर स्प्रे का काम करते हैं। मानव द्वारा निॢमत स्प्रे में मिलावट हो सकती है, जिस कारण उनके अच्छे परिणाम की संभावनाएं कम हो जाती हैं लेकिन प्रकृति के कीट स्प्रे के परिणामों शत प्रतिशत सही होते हैं। पौधे अपनी जरूरत के अनुसार शाकाहारी कीटों को बुलाते हैं और जरूरत पूरी होने के बाद भिन्न-प्रकार की गंध छोड़कर शाकाहारी कीटों को कंट्रोल करने के लिए मासाहारी कीटों को बुलाते हैं। निडाना गांव की महिला किसान अंग्रेजो ने कार्यक्रम में अपने विचार सांझा करते हुए बताया कि उन्होंने 4 साल से खेत में कोई स्प्रे नहीं किया है ,फिर भी अच्छी पैदावार ले रहे हैं। मिनी मलिक नामक महिला किसान ने कहा कि उसने 148 मांसाहारी तथा 43 शाकाहारी कीटों की पहचान की है। जब पौधे को जरूरत होती है तो वह कीटों की अपनी ओर स्वत: ही आकर्षित कर लेते हंै। रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का प्रयोग करके हम प्राकृतिक सिस्टम से छेड़छाड करते हंै। पाठशाला में ईंटलकलों के कृष्ण, ललित खेड़ा की मनीषा, हसनपुर के रविन्द्र, निडानी के जयभगवान ने भी अपने विचार सांझा किए। इस अवसर पर कार्यक्रम में कृषि उपनिदेशक डा. रामप्रताप सिहाग, जिला  उद्यान अधिकारी डा. बलजीत भ्याण, कुलदीप ढांडा भी मौजूद थे। 

2001 में कपास में हुए थे सबसे ज्यादा स्प्रे का प्रयोग

 कार्यक्रम के दौरान कीटों पर तैयार किए  गए गीत सुनाती महिलाएं।
ए.डी.ओ. डा. सुरेंद्र दलाल ने बताया कि कपास की फसल में 2001 में अमेरीकन सुंडी  का प्रकोप हुआ था। जिस काबू करने के लिए किसानों ने कीटनाशकों के 40-40 स्प्रे किए थे। डा. दलाल ने कहा कि कीटों को काबू करने की जरूरत नहीं है, जरूरत है तो कीटों की पहचान की। उन्होंने कहा कि धान की एक बैल में लगभग 100 दाने होते हैं। इनका वजन लगभग अढ़ाई ग्राम होता है। अगर धान की फसल में तनाछेदक आती है और पूरे खेत में एक हजार बैल खराब होती हैं तो इनका वजन लगभग अढ़ाई किलो बनता है। किसान इस अढ़ाई किलो दानों को बचाने के लिए इससे ज्यादा खर्च कर देता है। डा. दलाल ने कहा कि हमें अगर अपनी आने वाली पीढिय़ों को बचाना है तो सबसे पहले इस जहर से छुटकारा दिलवाना होगा। 

90  प्रतिशत आमदनी विदेशों में जाता है। 

ए.डी.ओ. डा. कमल सैनी ने बताया कि राजपुरा भैण गांव में कुल 1330 हैक्टेयर जमीन है। इसमें से 1205 हैक्टेयर में कास्तकार होती है। इसमें से 290 हैक्टेयर में कपास, 650 हैक्टेयर में धान, 240 हैक्टेयर में गन्ना तथा लगभग 50 हैक्टेयर में गवार की फसल की बिजाई की जाती है। डा. सैनी ने बताया कि अकेले राजपुरा भैण में 6 माह में कीटनाशकों पर कपास की फसल में 11 लाख, धान की फसल में 29 लाख, गन्ने की फसल में 13 लाख रुपए खर्च होते है। डा. सैनी ने बताया कि पूरे भारत में 90 लाख हैक्टेयर में कपास और 100 लाख हैक्टेयर में धान की खेती होती है। इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि पूरे देश में फसलों पर 
 कीटों के चित्र देखते किसान। 
कीटनाशकों पर कितना खर्च होता है। कीटनाशकों पर हम जितना खर्च करते हैं, उसका 90 प्रतिशत भाग विदेशों में जाता है। 

पंजाब के किसानो ने भी अर्जित किया कीट ज्ञान 


 कार्यक्रम में मौजूद महिलाएं। 
 कार्यक्रम में मौजूद महिलाएं। 
पंजाब के नवांशहर से डा. अशविंद्र, डा. नितिन के नेतृत्व में आए 25 किसानों ने बताया कि वे यहां के किसानों से कीट प्रबंधन के गुर सीखने आए हैं, क्योंकि उनके क्षेत्र में कीटनाशकों का ज्यादा प्रयोग होता है। जिस कारण कीटों पर कीट नाशकों का प्रभाव नहीं होतो है। कीटों की पहचान सीख कर वे अपने क्षेत्र को जहरमुक्त बनाना चाहते हैं। 



सोमवार, 28 जनवरी 2013

जहरमुक्त खेती को बढ़ाने के लिए जिला प्रशासन तैयार कर रहा एक्शन प्लान


प्रदेश के किसानों के लिए रोल माडल बनेंगे जींद जिले के किसान
निडाना तथा ललितखेड़ा के किसान पढ़ाएंगे कीटों की पढ़ाई

नरेंद्र कुंडू
जींद। कीटनाशक रहित खेती को बढ़ावा देने में जींद जिला प्रदेश के किसानों के लिए रोल मॉडल के रूप में उभरेगा। किसानों तथा कीटों के बीच पिछले 4 दशकों से चल रही जंग को समाप्त करने में निडाना और ललितखेड़ा गांव के किसान अहम भूमिक निभाएंगे। निडाना तथा ललित के किसानों द्वारा शुरू की गई इस मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए जिला प्रशासन ने अब इन किसानों का हाथ थाम लिया है। लोगों की थाली को जहरमुक्त करने तथा बेजुबान कीटों को बचाने के लिए अब जिला प्रशासन के सहयोग से निडाना तथा ललितखेड़ा गांव के मास्टर ट्रेनर किसान पूरे जिले में कीटनाशक रहित खेती की अलख जाएंगे। जहरमुक्त खेती की इस मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए जिला प्रशासन ने कृषि विभाग तथा बागवानी विभाग के अधिकारियों के हाथों में इस मुहिम की कमान सौंपने का निर्णय लिया है। किसानों के इस अभियान को सफल बनाने के लिए जिला प्रशासन द्वारा एक्शन प्लान तैयार किया जा रहा है। जिला प्रशासन जल्द ही इस प्लान पर अमल शुरू करने जा रहा है। 

जींद ब्लॉक से होगी मुहिम की शुरूआत

जिले के किसानों को कीटनाशक रहित खेती का पाठ पढ़ाने के लिए जल्द ही जिला प्रशासन द्वारा निडाना तथा ललितखेड़ा गांव के किसानों के सहयोग से एक विशेष मुहिम शुरू की जाएगी। निडाना तथा ललितखेड़ा गांव के मास्टर ट्रेनर जिले के अन्य गांवों में पाठशाला लगाकर किसानों को शाकाहारी तथा मासाहारी कीटों की पहचान के साथ-साथ उनके क्रियाकलापों के बारे में भी विस्तार से जानकारी देंगे। जिले के सभी गांवों में पाठशाला लगाने के लिए जिला प्रशासन मास्टर ट्रेनर किसानों को हर सुविधा मुहैया करवाएगा। सबसे पहले इस अभियान की शुरूआत जींद ब्लाक से की जाएगी। 

जिला प्रशासन किसानों का करेगा पूरा सहयोग

डा. युद्धवीर सिंह ख्यालिया
उपायुक्त, जींद

आज किसान अधिक उत्पादन की चाह में अंधाधुंध कीटनाशकों का प्रयोग कर रहे हैं। फसलों में कीटनाशकों के अधिक प्रयोग के कारण हमारा खान-पान जहरीला हो रहा है। लोगों की थाली को जहर मुक्त बनाने के लिए निडाना तथा ललितखेड़ा गांव के किसानों ने अपना खुद का कीट ज्ञान पैदा कर एक नई क्रांति को जन्म दिया है। यहां के किसानों ने मासाहारी तथा शाकाहारी कीटों एक अच्छा शोध किया है। अपने इस कीट ज्ञान के बूते ही ये किसान बिना कीटनाशकों का प्रयोग किए ही अच्छा उत्पादन ले रहे हैं। डा. सुरेंद्र दलाल ने किसानों के सहयोग से इस अभियान की शुरूआत की है। इनकी इस मुहिम को पूरे जिले में फैलाने के लिए जिला प्रशासन द्वारा इनका सहयोग किया जाएगा। बागवानी तथा कृषि विभाग के अधिकारियों को इस मुहिम को  सफल बनाने की जिम्मेदारी दी जाएगी। इसके लिए प्रशासन द्वारा एक एक्शन प्लान तैयार किया जा रहा है। सोमवार को कृषि तथा बागवानी विभाग के अधिकारियों की बैठक बुलाकर इस एक्शन प्लान पर अमल किया जाएगा। 



प्रशासन के सहयोग से अभियान को मिलेगा बल

किसान जानकारी के अभाव में बेजुबान कीटों को मार रहे हैं। पिछले लगभग 4 दशकों से किसानों तथा कीटों 
डा. सुरेंद्र दलाल
पाठशाला के संचालक

के बीच यह जंग चली आ रही है लेकिन निडाना तथा ललितखेड़ा गांव के किसानों ने खुद का कीट ज्ञान पैदा किया है। यहां के किसानों ने मासाहारी तथा शाकाहारी कीटों की पहचान की और उनके क्रियाकलापों के बारे में पूरी जानकारी जुटाई है। ना तो कीट हमारे मित्र हैं और ना ही हमारे दुश्मन। कीट तो अपना जीवन यापन करने के लिए फसल में आते हैं। कीट पौधों के परागन में विशेष भूमिका निभाते हैं। पौधे अपनी जरूरत के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार की सुगंध छोड़कर कीटों को आकॢषत करते हैं। इसलिए हमें कीटों तथा पौधों की भाषा तथा कीटों के क्रियाकलापों को समझने की जरूरत है। जिला प्रशासन द्वारा इस मुहिम में किसाानों का सहयोग करने से इस अभियान को काफी बल मिलेगा और सभी लोगों को इस मुहिम में अपना योगदान देना चाहिए, क्योंकि यह किसी व्यक्ति विशेष या समुदाय की समस्या नहीं, बल्कि पूरे समाज की समस्या है। 
डा. सुरेंद्र दलाल
पाठशाला के संचालक

तेजी से ऊपर जा रहा महिला उत्पीडऩ की घटनाओं का ग्राफ


नरेंद्र कुंडू
जींद। महिलाओं पर बढ़ रहे उत्पीडऩ तथा यौन शोषण की घटनाओं के आगे कानून की तमाम धाराएं तथा सरकार की नीतियां बौनी साबित हो रही हैं। महिलाओं की सुरक्षा के लिए उठाए जा रहे कदमों के बावजूद भी अत्याचार तथा यौन शोषण की घटनाओं पर लगाम लगने के बजाए लगातार ग्राफ ऊपर जा रहा है। जिले में बलात्कार तथा घरेलू ङ्क्षहसा के मामले का आंकड़ा पिछले वर्षों के मुकाबले दोगना हो गया है। वर्ष 2012 में अब तक जिले में 34 बलात्कार के मामले पुलिस ने दर्ज करके 56 आरोपियों को गिरफ्तार किया। इसी तरह महिलाओं पर घरों में हो रहे अन्य अत्याचार के 460 मामले जिला प्रोटैक्शन अधिकारी के पास पहुंचे लेकिन महिलाओं पर बढ़ रहे अत्याचार पर रोक लगाने के लिए ठोस कानून नहीं होने के चलते इस पर लगाम नहीं लग पा रही है। महिला एवं बाल विकास विभाग की तरफ से महिलाओं पर हो रहे अत्याचार रोकने के लिए कानून का प्रचार प्रसार करके जागरूक किया जा रहा है। अभियानों के बावजूद भी लोगों की मानसिकता नहीं बदल पा रही है। घृणित मानसिकता के चलते ही महिलाओं पर घरेलू हिंसा तथा यौवन शोषण के मामले बढ़ रहे हैं। ऐसे में हिंसा का शिकार होने वाली महिलाओं की फरियाद लगाने के आंकड़ों में कोई कमी नहीं आ रही है और प्रति वर्ष घरेलू हिंसा के आंकड़ों का ग्राफ ऊपर ही जा रहा है। यह आंकड़ा तो प्रशासन के पास पहुंच रहे मामलों का है, महिलाओं की एक बड़ी संख्या ऐसी भी है जो लोकलाज, रिश्ते टूटने व कोर्ट, कचहरी के चक्कर काटने से डरती है। इसलिए वे ऐसी योजना का फायदा नहीं उठा पाती हैं और ऐसे में यह मामले सामने नहीं आ पाते। 

हर वर्ष बढ़ रही हिंसा


महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए सरकार द्वारा वर्ष 2005 में घरेलू हिंसा महिला संरक्षण अधिनियम लागू किया था। महिला एवं बाल विकास निदेशालय द्वारा प्रदेश के सभी जिलों में महिला प्रोटैक्शन अधिकारियों की नियुक्ति की थी। इसके बावजूद आज भी कुछ लोगों द्वारा कानून की अवमानना की जा रही है। पिछले 3 साल में घरेलू हिंसा के 881 मामले सामने आए हैं। वर्ष 2009 में घरेलू हिंसा के 128 अंक मामले सामने आए हैं। वर्ष 2010 में 141 घरेलू हिंसा के सामने आए। वर्ष 2011 में यह आंकड़ा बढ़ते हुए 152 पर पहुंच गया। जबकि 2012 में यह आंकड़ा कई गुना बढ़ गया। जहां 3 वर्षो में कुल 421 मामले सामने आए, वहीं वर्ष 2012 में 460 मामले सरकारी आंकड़ों में दर्ज हुए हैं। बलात्कार की घटनाओं का आंकड़ा भी लगभग दोगना हो गया है। वर्ष 2011 में बलात्कार के लगभग 23 मामले प्र्रकाश में आए थे, जबकि 2012 में 34 महिलाओं को यौवन शोषण हुआ। ऐसे में आंकड़ों से अनुमान लगाया जा सकता है कि घरेलू हिंसा अधिनियम भी इस पर रोक लगाने में कामयाब नहीं हो पा रहा हैं। 
कठोर कानून बने


प्राचार्य निर्मला रोहिल्ला
रोहिल्ला स्कूल की प्राचार्य निर्मला रोहिल्ला ने कहा कि महिलाओं पर अत्याचार को रोकने के लिए कठोर कानून की जरूरत है। इसके लिए देश के कानून में संशोधन करके रेप जैसे जघन्य अपराध को अंजाम देने वालों को फांसी का प्रावधान करना होगा। जब तक कानून में कठोर प्रावधान नहीं किए जाएंगे तब तक महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों पर अंकुश नहीं लग पाएगा। इसलिए सरकार को जल्द से जल्द कानून में संशोधन करना चाहिए। 

फास्ट कोर्ट की जाए स्थापित


प्राचार्या सविता भोला 
श्रीराम पब्लिक स्कूल की प्राचार्या सविता भोला ने कहा कि गैंगरेप तथ महिलाओं के साथ अत्याचार करने वाले लोगों को जल्द से जल्द सजा देने के लिए फास्ट कोर्ट बनाने की आवश्यकता है। फास्ट कोर्ट न होने के चलते आरोपी लोगों को कई-कई वर्षो तक सजा नहीं मिल पाती है। जिसके चलते अपराधियों के हौंसले बुलंद हो जाते है। देशभर में फास्ट कोर्ट स्थापित करके गैगरेप करने वाले लोगों को फांसी की सजा दी जाए। 

मानसिकता बदलने की आवश्यकता

चेयरपर्सन वीणा देशवाल
जिला परिषद की चेयरपर्सन वीणा देशवाल ने कहा कि आज समाज में महिलाओं के साथ अत्याचार बढऩे का मुख्य कारण लोगों की बिगड़ती मानसिकता है। लोगों की घृणित मानसिकता के चलते महिलाओं तथा छात्राओं के साथ छेड़खानी की घटनाएं बढ़ रही हैं। इसके लिए शिक्षण संस्थाओं में भी छात्र-छात्राओं को इसके लिए जागरूक करने की आवश्यकता है। 

सुरक्षा बढ़ाई जाए

छात्रा रीना ने कहा कि छात्राओं के साथ छेड़खानी की घटनाएं आम हो चुकी है। इसके लिए प्रशासन को चाहिए कि सभी शिक्षण संस्थाओं के बाहर सुरक्षा बढ़ाई जाए तथा ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाली बसों में भी पुलिस कर्मचारी तैनात किए जाए। शिक्षण संस्थाओं में आने वाली छात्राओं को रास्तों में मनचले युवकों के अत्याचार का सामना करना पड़ता है। इसके लिए कठोर कदम उठाए जाए। 

पूरे वर्ष प्रदेश के किसानों के लिए मार्गदर्शक बने रहे निडाना व ललितखेड़ा के किसान


निडाना व ललित खेड़ा के किसानों ने ढुंढ़ा कीटनाशकों का विकल्प 
पंजाब जैसे प्रगतिशील प्रदेश के किसानों को पढ़ाया कीटों की पढ़ाई का पाठ

नरेंद्र कुंडू
जींद। किसानों में जागरूकता के अभाव के कारण फसलों में अधिक उर्वकों तथा कीटनाशकों के प्रयोग के कारण आज कैंसर, हार्ट अटैक, शुगर, सैक्स सम्बंधि कई लाइलाज बीमारियों ने इंसान को अपनी चपेट में ले लिया है। किसानों को जानकारी नहीं होने के कारण किसान लगातार कीटनाशकों के दलदल में धंसते ही जा रहे हैं लेकिन जिले के निडाना तथा ललितखेड़ा के किसानों ने प्रदेश के किसानों को नई राह दिखाने का काम किया है। एक तरफ जहां किसान फसलों के अधिक उत्पादन की चाह में फसलों में अंधाधुंध कीटनाशकों का प्रयोग कर रहे हैं, वहीं निडाना तथा ललितखेड़ा के किसानों ने बिना कीटनाशकों के अच्छा उत्पादन लेकर प्रदेश ही नहीं अपितू देश के किसानों के लिए एक मिशाल कायम की है। निडाना व ललितखेड़ा के किसानों ने फसलों में पाए जाने वाले शाकाहारी तथा मासाहारी कीटों को कीटनाशकों के विकल्प के रूप में तैयार किया है। कीटनाशकों के विरोध में 2008 में निडाना गांव के गौरे से शुरू हुई यह मुहिम 2012 तक जिले ही नहीं बल्कि प्रदेश के बाहर भी जा पहुंची। अपनी इस अनोखी पढ़ाई के कारण यहां के किसान पूरे वर्ष चर्चा का विषय बने रहे। 2012 में यहां के किसानों ने जहां खाप पंचायत का आयोजन कर इस मुहिम को एक नई दिशा दी, वहीं पंजाब जैसे प्रगतिशील प्रदेश के किसानों को भी कीटों की पढ़ाई सीखाकर कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों से मुक्ति पाने की संजीवनी दिखा दी। निडाना तथा ललितखेड़ा के किसानों ने फसलों में नए-नए प्रयोग कर 146 किस्म के मासाहारी तथा 43 किस्म के शाकाहारी कीटों की खोज की है जो फसलों में कीटनाशकों का काम करते हैं। यहां के किसानों का कहना है कि कीटनाशक किसान को धोखा दे सकते हैं लेकिन फसलों में मौजूद शाकाहारी तथा मासाहारी कीट किसान को धोखा नहीं देते। किसानों का मानना है कि अगर किसान अपनी फसल में किसी भी प्रकार के कीटनाशक का प्रयोग नहीं करे तो मासाहारी कीट ही उसकी फसल में कीटनाशक का काम कर देते हैं और उनकी थाली भी जहर से मुक्त हो सकती है।  
68 किस्म के कीटनाशक हो चुके हैं कैंसरकार घोषित
 किसान पाठशाला में मौजूद किसानों का फाइल फोटो। 


 महिला किसान पाठशाला में भाग लेती महिलाएं।
देश में 223 किस्म के कीटनाशक रजिस्टर्ड हैं। इनमें से 68 किस्म के ऐसे कीटनाशक, खरपतवार नाशक तथा फफुंदनाशी हैं जिन्हें यू.एस.ए. की पर्यावरण सुरक्षा एजैंसी कैंसरकारक घोषित कर चुकी है लेकिन इसके बावजूद भी ये कीटनाशक धड़ले से बिक रहे हैं। 

पूरा वर्ष चर्चा में बने रहे किसान

अपने इस अनोखे प्रयोग के कारण निडाना तथा ललितखेड़ा के किसान पूरा वर्ष यहां के किसानों तथा कृषि विभाग के लिए चर्चा का विषय बने रहे। किसानों तथा कीटों के बीच पिछले 40 वर्षों से चली आ रही जंग को खत्म करवाने के लिए लगातार 18 सप्ताह तक खाप पंचायतों का आयोजन कर खाप के चौधरियों को भी कीटों की पढ़ाई पढऩे के लिए मजबूर कर दिया। इसके अलावा पंजाब जैसे प्रगतिशील प्रदेश के किसानों को भी कीटों की पढ़ाई पढ़ाकर कीटनाशकों से बचने का एक अचूक शस्त्र थमा दिया। अपनी इस अनोखी पढ़ाई के कारण यहां के किसानों ने सत्यमेव जयते, रेडियो, दूरदर्शन सहित अन्य चैनलों के माध्यम से देश में कीटनाशक रहित खेती की अलख जगाई। 

तेजी से बढ़ रहा है कीटनाशकों के प्रयोग का ग्राफ

20 वर्षों में कीटनाशकों के प्रयोग का ग्राफ काफी तेजी से बढ़ा है। अकेले ङ्क्षहदुस्तान में लगभग 40 हजार करोड़ के कीट रसायनों, लगभग 50 हजार करोड़ के खरपतवार नाशकों तथा लगभग 30 हजार करोड़ बीमारी, फफुंद व जीवाणु नाशक रसायनों का कारोबार होता है। इस कारोबार से होने वाली आमदनी का 80 से 90 प्रतिशत हिस्सा विदेशों में जा रहा है। इसमें से जींद जिले के राजपुरा भैण गांव में कीटनाशकों का सबसे ज्यादा प्रयोग होता है। अकेले 3 करोड़ के कीटनाशक राजपुरा भैण के किसान खरीदते हैं। 

पुरुषों के साथ-साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं महिलाएं 

निडाना तथा ललितखेड़ा की महिलाएं भी किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। इन महिलाओं ने भी पुरुषों की तर्ज पर लगभग 20 सप्ताह तक महिला किसान खेत पाठशाला का आयोजन कर खेतों में नए-नए प्रयोग कर अपनी दक्षता  का परिचय दिया। इतना ही नहीं इन महिलाओं ने तो पुरुषों से आगे निकलते हुए कीटों पर गीतों की रचना भी की हुई है। इस पाठशाला में निडानी, निडाना तथा ललितखेड़ा से 70 के लगभग महिलाएं जुड़ चुकी हैं और ये सभी महिलाएं अपने खेतों में एक छटांक भी जरह का इस्तेमाल नहीं करती हैं। 



यहां कर्मचारी नहीं खुद तलाशने होते हैं जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र


6-6 कर्मचारियों की तैनाती के बावजूद यहां सब कुछ राम भरोसे

स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी यहां की बदइंतजामियों पर रोक लगाने में नाकाम

नरेंद्र कुंडू
जींद। यहां कर्मचारी नहीं खुद उन लोगों को अपनों के जन्म और मृत्यु प्रमाण पत्र तलाशने होते हैं, जिन्होंने इनके लिए आवेदन किया होता है। यहां 6-6 कर्मचारियों की नियुक्ति के बावजूद सब कुछ राम भरोसे है। कोई किसी का जन्म-मृत्यु प्रमाण  पत्र ले जाए तो यहां के कर्मचारियों की बला से। उन्हें इससे कोई सरोकार नहीं है। 
यह कड़वी और चौंकाने वाली सच्चाई है जींद के सामान्य अस्पताल की जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र जारी करने वाली उस  ङ्क्षवग की, जो सिविल सर्जन से लेकर स्वास्थ्य विभाग के दूसरे अधिकारियों की नाक हर मौके पर कटवाने का काम करती रही है। वीरवार को 'पंजाब केसरी' की टीम ने यहां का मुआयना किया तो यहां इसी तरह का नजारा था जब यहां का बेहद अहम रिकार्ड कार्यालय से बाहर बरामदे में पटक दिया गया था। इस रिकार्ड से लोग अपनों के जन्म और मृत्यु के प्रमाण पत्र खंगालने और तलाशने में लगे हुए थे। यहां प्रमाण पत्र लेने के लिए आए लोगों को कर्मचारियों का काम खुद ही करना पड़ रहा था। लोगों के सामने फाइलों का ढेर लगा हुआ था और लोग उन फाइलों से खुद ही अपने प्रमाण पत्र ढुंढ़ रहे थे। 'पंजाब केसरी' की टीम ने जब इन लोगों से बातचीत की तो इन लोगों ने टीम के सामने अपना दुखड़ा रोते हुए अपनी परेशानी ब्यां की।
गांव गांगोली निवासी महाबीर ने बताया कि उसने अपने बेटे का जन्म प्रमण पत्र लेने के लिए उसने 3 नवंबर को फार्म भरकर जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र कार्यालय में जमा करवा था। वह पिछले एक माह से कार्यालय के चक्कर काट रहा है लेकिन कार्यालय में मौजूद कर्मचारी उसे प्रमाण पत्र देने की बजाए एक-दो दिन में दोबारा आने की बात कह कर टरका देते हैं। यहां उसकी कोई सुनवाई नहीं हो रही है। महाबीर ने बताया कि आज जब वह कार्यालय में जन्म प्रमाण पत्र लेने के लिए पहुंचा तो कार्यालय के कर्मचारियों ने कई फाइल उसके हाथ में थमाते हुए कह दिया कि बाहर बैठकर इन फाइलों में से अपना प्रमाण पत्र खुद ढुंढ़ लो, लेकिन इन फाइलों में भी जब उसे उसके बेटे का जन्म प्रमाण पत्र नहीं मिला तो कर्मचारियों ने उसे दो-चार दिन में दोबारा आने की बात कहकर अपना पल्ला झाड़ दिया। एक माह बाद भी उसे जन्म प्रमाण पत्र नहीं मिल पाया है। कार्यालय में कार्यरत कर्मचारियों का रवैया ठीक नहीं है।
नारायणगढ़ निवासी अजय तथा इस्माइलपुर निवासी मोहन लाल ने बताया कि उन्हें पासपोर्ट बनवाना है। पासपोर्ट बनवाने के लिए उन्हें अपने जन्म प्रमाण पत्र की जरूरत है। अजय तथा मोहन लाल ने बताया कि उन्होंने लगभग 3 माह पहले जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र कार्यालय में जन्म प्रमाण पत्र लेने के लिए फार्म जमा करवाया था। फार्म जमा करवाने के बाद कार्यालय के कर्मचारियों ने उन्हें एक माह का समय दिया था। अब वह पिछले 2 माह से अपना प्रमाण पत्र लेने के लिए कार्यालय के चक्कर काट रहे हैं लेकिन अभी तक उन्हें उनका जन्म प्रमाण पत्र नहीं मिल पाया है। उन्हें हर बार या तो यह कहकर टाल दिया जाता है कि अभी उनका प्रमाण पत्र तैयार नहीं हुआ है, या फिर उनके हाथों में फाइल थमा कर इन फाइलों में से अपना प्रमाण पत्र ढुंढऩे के लिए कह देते हैं। उन्होंने बताया कि कार्यालय के कर्मचारियों की लापरवाही से उनका पासपोर्ट का काम नहीं हो पा रहा है। 
गांव डूमराखां निवासी प्रदीप ने बताया कि वह डेढ़ माह से जन्म प्रमाण पत्र के लिए कार्यालय के चक्कर काट रहा है लेकिन अभी तक उसे जन्म प्रमाण पत्र नहीं मिला है। कार्यालय में कार्यरत कर्मचारी उसे फाइलों में से स्वयं अपना जन्म प्रमाण पत्र ढुंढऩे की बात कह देते हैं लेकिन कार्यालय में फाइलों का ढेर लगा हुआ है। इनती फाइलों में से वह किस तरह से अपना प्रमाण पत्र ढुंढ़े उसे कुछ समझ नहीं आ रहा है। गांव बराहा खुर्द निवासी दरवेश ने कहा कि उसे दाखिले के लिए जन्म प्रमाण पत्र की जरूरत है लेकिन वह पिछले 3 माह से जन्म-प्रमाण पत्र कार्यालय के चक्कर काट रहा है उसे अभी तक न तो जन्म प्रमाण पत्र मिला है और ना ही कर्मचारी कोई संतुष्ट जवाब दे रहे हैं। कर्मचारियों की लापरवाही से उसका दाखिले का काम रूका हुआ है। 

बेटे के जन्म पत्र में नाम ठीक करवाने के लिए 23 जुलाई 2012 को यहां फाइल जमा करवाई थी। फाइल जमा करवाए उसे 5 माह हो चुके हैं लेकिन अभी तक उसका काम नहीं हुआ है। 5 माह से वह बेटे का नाम ठीक करवाने के लिए कार्यालय के चक्कर काट रहा है लेकिन नाम ठीक करना तो दूर की बात यहां मौजूद कर्मचारी उसे उसकी फाइल की स्थिति के बारे में ही जानकारी नहीं दे रहे हैं। 
बूरा राम का फोटो।
बूराराम
गांव रेवर


जन्म प्रमाण पत्र में नाम ठीक करवाने के लिए 4 अक्तूबर को फाइल जमा करवाई थी लेकिन अभी तक जन्म प्रमाण पत्र में नाम ठीक नहीं किया है। वह कार्यालय के चक्कर लगा-लगाकर थक गया है लेकिन कार्यालय में मौजूद कर्मचारी कब तक उसका काम कर देंगे इसके बारे में कुछ बताने को तैयार नहीं हैं। 
कृष्ण
गांव शामदो
कृष्ण कुमार का फोटो।

जन्म प्रमाण पत्र लेने के लिए 19 अक्तूबर को जींद कार्यालय में फाइल जमा करवाई थी। वह पिछले 2 माह से जन्म प्रमाण पत्र लेने के लिए कार्यालय के चक्कर काट रहा है लेकिन अभी तक उसे जन्म प्रमाण पत्र नहीं मिल पाया है। आज जब वह जन्म प्रमाण पत्र लेने के लिए यहां कार्यालय में पहुंचा तो उसे यह बताया गया कि अब उसे जन्म प्रमाण पत्र जींद की बजाए कैथल से मिलेगा। उसे यह बात समझ नहीं आ रही है कि जब उसका गांव जींद जिले में पड़ता है तो उसे जन्म प्रमाण पत्र के लिए कैथल क्यों भेजा जा रहा है।
 आत्माराम पेगां का फोटो।
आत्मा राम 
गांव पेगां


जन्म प्रमाण पत्र लेने के लिए 3 माह पहले कार्यालय में फार्म जमा करवाया था लेकिन अभी तक जन्म प्रमाण पत्र नहीं मिला है। आज जब वह प्रमाण पत्र लेने के लिए यहां कार्यालय में पहुंचा तो कार्यालय में कार्यरत कर्मचारियों ने उसे खुद ही फाइलों से अपना जन्म प्रमाण पत्र ढुंढऩे के लिए कह कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। 
सुरेंद्र, नरवाना 
सुरेंद्र का फोटो।

बुधवार को नहीं मिलते प्रमाण पत्र

अस्पताल प्रशासन की लापरवाही के चलते जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र कार्यालय में कार्यरत कर्मचारियों के हौंसले इतने बुलंद हैं कि इन्होंने अपनी मनमर्जी के मुताबित नियम तय कर रखे हैं। कर्मचारियों ने कार्यालय के बाहर पोस्टर चस्पा कर लिखा हुआ है कि यहां बुधवार के दिन जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र लेने-देने का कार्य नहीं होगा। यहां सवाल यह उठता है कि आखिरी बुधवार को जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र लेने देने का कार्य क्यों बंद रखा जाता है। 

सिविल सर्जन के पास नहीं कुछ जवाब

इस बारे में जब सिविल सर्जन डा. राजेंद्र प्रसाद से बातचीत की गई तो उनके पास कोई ठोस जबाव नहीं था। डा. राजेंद्र प्रसाद ने बताया कि आज जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र कार्यालय के इंचार्ज छुट्टी पर हैं। छुट्टी से लोटने के बाद ही इस बारे में उनसे बातचीत की जाएगी।