मंगलवार, 29 नवंबर 2022

जगदीशचंद्र बसु – विज्ञान के आकाश में भारतीय पुरोधा

'पेड़ पौधों में भी जीवन होता है और उनमें भी अनुभूतियाँ होती है' इस बात को वैज्ञानिक आधार पर सिद्ध कर दुनियां को चौकाने वाले वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु का आज जन्म दिवस है. इनका जन्म 30 नवंबर 1858 को मेमनसिंह गाँव,बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) में हुआ था. बसु जी प्रसिद्ध भौतिकवादी तथा पादपक्रिया वैज्ञानिक कहे जाते थे. बसु जी बचपन से ही बहुत विद्वान् और किसी न किसी क्षेत्र में रिसर्च करते रहते. जगदीश चंद्र बसु  ने कई महान ग्रंथ भी लिखे हैं, जिनमें से कुछ निम्न है - सजीव तथा निर्जीव की अभिक्रियाएँ ,वनस्पतियों की अभिक्रिया, पौधों की प्रेरक यांत्रिकी इत्यादि.  जगदीश चंद्र बसु ने सिद्ध किया कि चेतना केवल मनुष्यों और पशुओं, पक्षियों तक ही सीमित नहीं है, अपितु वह वृक्षों और निर्जीव पदार्थों में भी समाहित है. उन्होंने कहा कि निर्जीव व सजीव दोनों सापेक्ष हैं. उनमें अंतर केवल इतना है कि धातुएं थोड़ी कम संवेदनशील होती हैं. इनमें डिग्री का अंतर है परंतु चेतना सब में है. सर जगदीश चंद्र  सबसे प्रमुख पहले भारतीय वैज्ञानिकों में से एक हैं जिन्होंने प्रयोग करके साबित किया कि जानवर और पौधे दोनों में बहुत कुछ समान है। उन्होंने दिखाया कि पौधे गर्मी, ठंड, प्रकाश, शोर और विभिन्न अन्य बाहरी उत्तेजनाओं के प्रति भी संवेदनशील होते हैं। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा एक स्थानीय स्कूल से प्राप्त की, क्योंकि उनके पिता का मानना था कि अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा का अध्ययन करने से पहले बोस को अपनी मातृभाषा, बंगाली सीखनी चाहिए। उन्होंने बी.ए. कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से डिग्री, लंदन विश्वविद्यालय से बीएससी की डिग्री और यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन से डीएससी की डिग्री। 1896 में, बोस ने ‘निरुदेशेर कहिनी’ लिखी, जिसे बंगाली विज्ञान कथा की पहली कृतियों में से एक माना जाता है।

 

बसु के प्रसिद्ध प्रयोग : लंदन में रॉयल सोसाइटी का केंद्रीय हॉल 10 मई, 1901 को प्रसिद्ध वैज्ञानिकों से खचाखच भरा था। हर कोई यह जानने के लिए उत्सुक था कि बसु का प्रयोग कैसे प्रदर्शित करेगा कि पौधों में अन्य जीवित प्राणियों और मनुष्यों की तरह भावनाएँ होती हैं। बसु ने एक ऐसे पौधे को चुना जिसकी जड़ों को ब्रोमाइड के घोल वाले बर्तन में सावधानी से उसके तने तक डुबोया गया, जिसे जहर माना जाता है। उन्होंने प्लांट के साथ उपकरण में प्लग लगाया और एक स्क्रीन पर रोशनी वाले स्थान को देखा, जिसमें पौधे की गति दिखाई दे रही थी, जैसे कि उसकी नाड़ी धड़क रही थी, और स्पॉट एक पेंडुलम के समान गति करने लगा। मिनटों के भीतर, घटनास्थल हिंसक तरीके से हिल गया और अंत में अचानक बंद हो गया। सब कुछ लगभग एक जहरीले चूहे की तरह था जो मौत से लड़ रहा था। जहरीले ब्रोमाइड के घोल के संपर्क में आने से पौधे की मृत्यु हो गई थी। इस कार्यक्रम का बहुत सराहना और तालियों के साथ स्वागत किया गया. 

 

उन्होंने क्रेस्कोग्राफ का आविष्कार किया, जो पौधों की वृद्धि को मापने के लिए एक उपकरण है उन्हें पौधों के तिसुएस में माइक्रोवेव की क्रिया का अध्ययन करने वाले पहले व्यक्ति के रूप में जाना जाता है बोस रेडियो तरंगों का पता लगाने के लिए सेमी कंडक्टर जंक्शन का उपयोग करने वाले पहले व्यक्ति थे और उन्होंने विभिन्न माइक्रोवेव घटकों का भी आविष्कार किया। उन्होंने ऑटोमैटिक रिकॉर्डर का निर्माण किया जो पौधों में भी मिनट की गतिविधियों को दर्ज कर सकते हैं।

 

मारकोनी नहीं बसु है 'रेडियो तरंगों' के  प्रणेता: जगदीश चंद्र बसु ने सूक्ष्म तरंगों (माइक्रोवेव) के क्षेत्र में वैज्ञानिक कार्य तथा अपवर्तन, विवर्तन और ध्रुवीकरण के विषय में अपने प्रयोग आरंभ कर दिये थे. लघु तरंगदैर्ध्य, रेडियो तरंगों तथा श्वेत एवं पराबैंगनी प्रकाश दोनों के रिसीवर में गेलेना क्रिस्टल का प्रयोग बसु  के द्वारा ही विकसित किया गया था. मारकोनी के प्रदर्शन से 2 वर्ष पहले ही 1885 में बसु ने रेडियो तरंगों द्वारा बेतार संचार का प्रदर्शन किया था. इस प्रदर्शन में जगदीश चंद्र बसु ने दूर से एक घण्टी बजाई और बारूद में विस्फोट कराया था. आजकल प्रचलित बहुत सारे माइक्रोवेव उपकरण जैसे वेव गाईड, ध्रुवक, परावैद्युत लैंस, विद्युतचुम्बकीय विकिरण के लिये अर्धचालक संसूचक, इन सभी उपकरणों का उन्नींसवी सदी के अंतिम दशक में बसु ने अविष्कार किया और उपयोग किया था.  बसु ने दुनिया के पहले 'हार्न एंटीना' की खोज की जो आज माइक्रोवेव आधारित सभी उपकरणों में इस्तेमाल किया जाता है. आज का रेडियो, टेलीविज़न, रडार, भूतलीय संचार रिमोट सेन्सिंग, माइक्रोवेव ओवन और इंटरनेट इन्हीं तरंगों के कारण चलते हैं. पौधों में वृद्धि की अभिरचना आज आधुनिक विज्ञान के तरीकों से सिद्ध हो गई है. पौधों में वृद्धि और अन्य जैविक क्रियाओं पर समय के प्रभाव का अध्ययन जिसकी बुनियाद बसु ने डाली, आज क्रोनोबायोलॉजी कही जाती है. अलग-अलग परिस्थियों में सेल मेम्ब्रेन पोटेंशियल के बदलाव का विश्लेषण करके वे इस नतीजे पर पहुंचे कि पौधे संवेदनशील होते हैं, वे दर्द महसूस कर सकते हैं.

 

जीवन बड़ा नहीं सार्थक होना चाहिए: समस्त विश्व की तरह महात्मा गाँधी भी उनसे बहुत प्रभावित थे I उनके जीवनीकारों में से एक पैट्रिक गेडेज लिखते हैं कि 'जगदीश चंद्र बसु के जीवन की कहानी पर उन सभी युवा भारतीयों को गहराई और मजबूत विचारों के साथ गौर करना होगा, जिनका उद्देश्य विज्ञान या बौद्धिकता या सामाजिक भावना के महती लक्ष्यों को साकार करना है'. बोस एक अच्छे शिक्षक भी थे, जो कक्षा में पढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर वैज्ञानिक प्रदर्शनों का उपयोग करते थे। बोस के ही कुछ छात्र जैसे सतेन्द्र नाथ बोस आगे चलकर प्रसिद्ध भौतिकशास्त्री बने। वर्ष 1917 में जगदीश चंद्र बोस को "नाइट" (Knight) की उपाधि प्रदान की गई तथा शीघ्र ही भौतिक तथा जीव विज्ञान के लिए रॉयल सोसायटी लंदन के फैलो चुन लिए गए। बोस ने अपना पूरा शोधकार्य बिना किसी अच्छे (महगे) उपकरण और प्रयोगशाला के किया था. इसलिये जगदीश चंद्र बोस एक अच्छी प्रयोगशाला बनाने की सोच रहे थे। "बोस इंस्टीट्यूट" (बोस विज्ञान मंदिर) इसी सोच का परिणाम है जो कि विज्ञान में शोधकार्य के लिए राष्ट्र का एक प्रसिद्ध केन्द्र है। बसु ने ही सूर्य से आने वाले विद्युत चुम्बकीय विकिरण के अस्तित्व का सुझाव दिया था जिसकी पुष्टि 1944 में हुई. जगदीश बसु ने मानव विकास की नींव डाली और मानव जीवन के लिए बहुत से सफल प्रयास किए. उनका 78 वर्ष की आयु में 23 नवंबर 1937 को गिरिडीह, भारत में निधन हो गया। शुद्ध भारतीय परंपराओं और संस्कृति के प्रति समर्पित जगदीश चंद्र बसु आज भी हम सभी की प्रेरणा है.     

डॉ. पवन सिंह  
 

(लेखक जे. सी. बोस विश्वविद्यालयफरीदाबाद के मीडिया विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर है)

 

गुरुवार, 24 नवंबर 2022

ऋषि, मुनि, साधु और संन्यासी में अंतर

भारत में प्राचीन काल से ही ऋषि मुनियों का बहुत महत्व रहा है। ऋषि मुनि समाज के पथ प्रदर्शक माने जाते थे और वे अपने ज्ञान और साधना से हमेशा ही लोगों और समाज का कल्याण करते आए हैं। आज भी वनों में या किसी तीर्थ स्थल पर हमें कई साधु देखने को मिल जाते हैं। धर्म-कर्म में हमेशा लीन रहने वाले इस समाज के लोगों को ऋषि, मुनि, साधु और संन्यासी आदि नामों से पुकारते हैं। ये हमेशा तपस्या, साधना, मनन के द्वारा अपने ज्ञान को परिमार्जित करते हैं। ये प्राय: भौतिक सुखों का त्याग करते हैं हालांकि कुछ ऋषियों ने गृहस्थ जीवन भी बिताया है। आइये इस लेख के माध्यम से जानते हैं ऋषि, मुनि, साधु और संन्यासी में कौन होते हैं और इनमे क्या अंतर है?

ऋषि कौन होते हैं

भारत हमेशा से ही ऋषियों का देश रहा है। हमारे समाज में ऋषि परंपरा का विशेष महत्व रहा है। आज भी हमारे समाज और परिवार किसी न किसी ऋषि के वंशज माने जाते हैं। ऋषि वैदिक परंपरा से लिया गया शब्द है जिसे श्रुति ग्रंथों को दर्शन करने वाले लोगों के लिए प्रयोग किया गया है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है वैसे व्यक्ति जो अपने विशिष्ट और विलक्षण एकाग्रता के बल पर वैदिक परंपरा का अध्ययन किये और विलक्षण शब्दों के दर्शन किये और उनके गूढ़ अर्थों को जाना और प्राणी मात्र के कल्याण हेतु उस ज्ञान को लिखकर प्रकट किए ऋषि कहलाये। ऋषियों के लिए इसीलिए कहा गया है 'ऋषि तु मन्त्र द्रष्टारा न तु कर्तारÓ अर्थात ऋषि मंत्र को देखने वाले हैं न कि उस मन्त्र की रचना करने वाले। हालांकि कुछ स्थानों पर ऋषियों को वैदिक ऋचाओं की रचना करने वाले के रूप में भी व्यक्त किया गया है। 

ऋषि शब्द का अर्थ 'ऋषÓ मूल से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ देखना होता है। इसके अतिरिक्त ऋषियों के प्रकाशित कृत्य को आर्ष कहा जाता है जो इसी मूल शब्द की उत्पत्ति है। दृष्टि यानि नजर भी ऋष से ही उत्पन्न हुआ है। प्राचीन ऋषियों को युग द्रष्टा माना जाता था और माना जाता था कि वे अपने आत्मज्ञान का दर्शन कर लिए हैं। ऋषियों के सम्बन्ध में मान्यता थी कि वे अपने योग से परमात्मा को उपलब्ध हो जाते थे और जड़ के साथ-साथ चैतन्य को भी देखने में समर्थ होते थे। वे भौतिक पदार्थ के साथ-साथ उसके पीछे छिपी ऊर्जा को भी देखने में सक्षम होते थे। 

ऋषियों के प्रकार

ऋषि वैदिक संस्कृत भाषा से उत्पन्न शब्द माना जाता है। अत: यह शब्द वैदिक परंपरा का बोध कराता है जिसमे एक ऋषि को सर्वोच्च माना जाता है अर्थात् ऋषि का स्थान तपस्वी और योगी से श्रेष्ठ होता है। अमर सिंह द्वारा संकलित प्रसिद्ध संस्कृत समानार्थी शब्दकोष के अनुसार ऋषि सात प्रकार के होते हैं ब्रह्मऋषि, देवर्षि, महर्षि, परमऋषि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि और राजर्षि। 

सप्त ऋषि

पुराणों में सप्त ऋषियों का केतु, पुलह, पुलत्स्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ठ और भृगु का वर्णन है। इसी तरह अन्य स्थान पर सप्त ऋषियों की एक अन्य सूचि मिलती है जिसमें अत्रि, भृगु, कौत्स, वशिष्ठ, गौतम, कश्यप और अंगिरस तथा दूसरी में कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि, भरद्वाज को सप्त ऋषि कहा गया है। 

मुनि किसे कहते हैं

मुनि भी एक तरह के ऋषि ही होते थे किन्तु उनमें राग द्वेष का आभाव होता था। भगवत गीता में मुनियों के बारे में कहा गया है जिनका चित्त दु:ख से उद्विग्न नहीं होता, जो सुख की इच्छा नहीं करते और जो राग, भय और क्रोध से रहित हैं, ऐसे निस्चल बुद्धि वाले संत मुनि कहलाते हैं। मुनि शब्द मौनी यानि शांत या न बोलने वाले से निकला है। ऐसे ऋषि जो एक विशेष अवधि के लिए मौन या बहुत कम बोलने का शपथ लेते थे उन्हें मुनि कहा जाता था। प्राचीन काल में मौन को एक साधना या तपस्या के रूप में माना गया है। बहुत से ऋषि इस साधना को करते थे और मौन रहते थे। ऐसे ऋषियों के लिए ही मुनि शब्द का प्रयोग होता है। कई बार बहुत कम बोलने वाले ऋषियों के लिए भी मुनि शब्द का प्रयोग होता था। कुछ ऐसे ऋषियों के लिए भी मुनि शब्द का प्रयोग हुआ है जो हमेशा ईश्वर का जाप करते थे और नारायण का ध्यान करते थे जैसे नारद मुनि। 

मुनि शब्द का चित्र, मन और तन से गहरा नाता है। ये तीनों ही शब्द मंत्र और तंत्र से सम्बन्ध रखते हैं। ऋग्वेद में चित्र शब्द आश्चर्य से देखने के लिए प्रयोग में लाया गया है। वे सभी चीजें जो उज्जवल हैं, आकर्षक हैं और आश्चर्यजनक हैं वे चित्र हैं। अर्थात् संसार की लगभग सभी चीजें चित्र शब्द के अंतर्गत आती हैं। मन कई अर्थों के साथ-साथ बौद्धिक चिंतन और मनन से भी सम्बन्ध रखता है। अर्थात् मनन करने वाले ही मुनि हैं। मन्त्र शब्द मन से ही निकला माना जाता है और इसलिए मंत्रों के रचयिता और मनन करने वाले मनीषी या मुनि कहलाये। इसी तरह तंत्र शब्द तन से सम्बंधित है। तन को सक्रीय या जागृत रखने वाले योगियों को मुनि कहा जाता था।

जैन ग्रंथों में भी मुनियों की चर्चा की गई है। वैसे व्यक्ति जिनकी आत्मा संयम से स्थिर है, सांसारिक वासनाओं से रहित है, जीवों के प्रति रक्षा का भाव रखते हैं, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, ईर्या (यात्रा में सावधानी), भाषा, एषणा (आहार शुद्धि ) आदणिक्षेप (धार्मिक उपकरण व्यवहार में शुद्धि) प्रतिष्ठापना (मल मूत्र त्याग में सावधानी) का पालन करने वाले, सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायतसर्ग करने वाले तथा केशलोच करने वाले, नग्न रहने वाले, स्नान और दातुन नहीं करने वाले, पृथ्वी पर सोने वाले, त्रिशुद्ध आहार ग्रहण करने वाले और दिन में केवल एक बार भोजन करने वाले आदि 28 गुणों से युक्त महर्षि ही मुनि कहलाते हैं। मुनि ऋषि परंपरा से सम्बन्ध रखते हैं किन्तु वे मन्त्रों का मनन करने वाले और अपने चिंतन से ज्ञान के व्यापक भंडार की उत्पति करने वाले होते हैं। मुनि शास्त्रों का लेखन भी करने वाले होते हैं। 

साधु कौन होते हैं 

किसी विषय की साधना करने वाले व्यक्ति को साधु कहा जाता है। प्राचीन काल में कई व्यक्ति समाज से हट कर या कई बार समाज में ही रहकर किसी विषय की साधना करते थे और उस विषय में विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करते थे। विषय को साधने या उसकी साधना करने के कारण ही उन्हें साधु कहा गया। कई बार अच्छे और बुरे व्यक्ति में फर्क करने के लिए भी साधु शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका कारण है कि सकारात्मक साधना करने वाला व्यक्ति हमेशा सरल, सीधा और लोगों की भलाई करने वाला होता है। आम बोलचाल में साध का अर्थ सीधा और दुष्टता से हीन होता है। संस्कृत में साधु शब्द से तात्पर्य है सज्जन व्यक्ति। लघुसिद्धांत कौमुदी में साधु का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि 'साध्नोति परकार्यमिति साधु :-अर्थात् जो दूसरे का कार्य करे वह साधु है। साधु का एक अर्थ उत्तम भी होता है ऐसे व्यक्ति जिसने अपने छह विकार काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर का त्याग कर दिया हो, साधु कहलाता है। 

साधु के लिए यह भी कहा गया है 'आत्मदशा साधेÓ अर्थात् संसार दशा से मुक्त होकर आत्मदशा को साधने वाले साधु कहलाते हैं। वर्तमान में वैसे व्यक्ति जो सन्यास दीक्षा लेकर गेरुआ वस्त्र धारण करते हैं और जिनका मूल उद्द्येश्य समाज का पथ प्रदर्शन करते हुए धर्म के मार्ग पर चलते हुए मोक्ष को प्राप्त करते हैं, साधु कहलाते हैं। 


सन्यासी किसे कहते हैं

सन्यासी धर्म की परम्परा प्राचीन हिन्दू धर्म से जुड़ी नहीं है। वैदिक काल में किसी सन्यासी का कोई उल्लेख नहीं मिलता। सन्यासी या सन्यास की अवधारणा संभवत: जैन और बौद्ध धर्म के प्रचलन के बाद की है जिसमे सन्यास की अपनी मान्यता है। हिन्दू धर्म में आदि शंकराचार्य को महान सन्यासी माना गया है। सन्यासी शब्द सन्यास से निकला हुआ है जिसका अर्थ त्याग करना होता है। अत: त्याग करने वाले को ही सन्यासी कहा जाता है। सन्यासी संपत्ति का त्याग करता है, गृहस्थ जीवन का त्याग करता है या अविवाहित रहता है, समाज और सांसारिक जीवन का त्याग करता है और योग ध्यान का अभ्यास करते हुए अपने आराध्य की भक्ति में लीन हो जाता है। 

हिन्दू धर्म में तीन तरह के सन्यासियों का वर्णन है :- परिव्राजक: सन्यासी :- भ्रमण करने वाले सन्यासियों को परिव्राजक: की श्रेणी में रखा जाता है। आदि शंकराचार्य और रामनुजनाचार्य परिव्राजक: सन्यासी ही थे। 

परमहंस सन्यासी :- यह सन्यासियों की उच्चत्तम श्रेणी है। 

यति सन्यासी :- उद्द्येश्य की सहजता के साथ प्रयास करने वाले सन्यासी इस श्रेणी के अंतर्गत आते हैं। 

वास्तव में सन्यासी वैसे व्यक्ति को कह सकते हैं जिसका आतंरिक स्थिति स्थिर है और जो किसी भी परिस्थिति या व्यक्ति से प्रभावित नहीं होता है और हर हाल में स्थिर रहता है। उसे न तो ख़ुशी से प्रसन्नता मिलती है और न ही दु:ख से अवसाद। इस प्रकार निरपेक्ष व्यक्ति जो सांसारिक मोह माया से विरक्त अलौकिक और आत्मज्ञान की तलाश करता हो सन्यासी कहलाता है। 

उपसंहार

ऋषि, मुनि, साधु या फिर सन्यासी सभी धर्म के प्रति समर्पित जन होते हैं जो सांसारिक मोह के बंधन से दूर समाज कल्याण हेतु निरंतर अपने ज्ञान को परिमार्जित करते हैं और ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हेतु तपस्या, साधना, मनन आदि करते हैं।


मंगलवार, 15 नवंबर 2022

खेलों के क्षेत्र में सोने की खान बनता हरियाणा

नरेंद्र कुंडू 

'देशां म देश हरियाणा, जित दूध-दही का खाना यह हरियाणा के दूध-दही का ही कमाल है कि जो यहां के खिलाड़ी खेलों के क्षेत्र में विश्व पटल पर भारत का नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिख रहे हैं। खेल का मैदान हो या युद्ध का क्षेत्र हरियाणा के युवा हर जगह अपना परचम लहरा रहे हैं। आज खेलों के क्षेत्र में हरियाणा की एक अलग पहचान है। हरियाणा की माटी से निकले खिलाड़ी देश के लिए गोल्ड मैडल ला रहे हैं। हरियाणा अब खेलों का हब बन चुका है। कुश्ती का अखाड़ा हो चाहे कबड्डी का मैदान या फिर एथेलेटिक्स का ट्रैक हर क्षेत्र में हरियाणा के खिलाडिय़ों का दबदबा है। कुश्ती के अखाड़े में तो हरियाणा के पहलवानों का कोई तोड़ नहीं है। इसी प्रकार बॉक्सिंग के रिंग में भी हरियाणा के खिलाड़ी राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गोल्डन पंच लगा रहे हैं। खेलों के क्षेत्र में हरियाणा का नाम आज अग्रीम पंक्ति में है।  

भारत के कुल क्षेत्रफल का केवल 1.4 प्रतिशत और देश की 2.1 प्रतिशत से कम आबादी के साथ भौगोलिक क्षेत्र के मामले में 22वें स्थान पर होने के बावजूद हरियाणा खेलों के क्षेत्र में नंबर वन राज्य के रूप में उभरा है। राष्ट्रीय स्तर हो या अंतर्राष्ट्रीय मंच, हरियाणा देश की पदक तालिका में अपने योगदान के मामले में अग्रणी रहा है। टोक्यो-2020 ओलम्पिक खेलों में भी हरियाणा का 50 प्रतिशत से अधिक मैडल का योगदान रहा है। हरियाणा ने भारत द्वारा जीते गए व्यक्तिगत पदकों में से आधे का योगदान दिया। 2016 के रियो ओलंपिक में भी हरियाणा ने भारत के पदकों में से आधे का योगदान दिया था। इसी तरह हरियाणा के खिलाडिय़ों ने 2018 एशियाई खेलों में भारत के कुल पदकों का लगभग एक-चौथाई और राष्ट्रमंडल खेलों में एक-तिहाई पदक जीते थे। इसी प्रकार गुजरात के अहमदाबाद में आयोजित हुए राष्टï्रीय खेलों, स्पेन में आयोजित हुए अंडर-23 विश्व कुश्ती प्रतियोगिता, नेपाल में आयोजित हुई इंटरनैशनल पावर लिफ्टिंग प्रतियोगिता, इंग्लैंड में आयोजित कॉमनवेल्थ गेम्स 2022, सर्बिया में आयोजित इंटरनैशनल गोल्डन ग्लोव्स टूर्नामेंट, भोपाल में हुई राष्ट्रीय एथलेटिक्स प्रतियोगिता, गुजरात के भावनगर में आयोजित हुए 36वें राष्ट्रीय खेलों, बुल्गारिया में आयोजित अंडर-20 वल्र्ड रेसलिंग (कुश्ती) चैंपियनशिप में भी हरियाणा के खिलाडिय़ों ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है। हरियाणा की माटी से दिन-प्रतिदिन अनेकों खिलाड़ी निकल कर आगे आ रहे हैं। आज सही मायनों में हरियाणा खेलों के क्षेत्र में सोने की खान बनने की ओर अग्रसर है। युवाओं का खेलों के क्षेत्र में रुझान लगातार बढ़ता रहा है। हरियाणा की माटी देश को एक से बढ़कर एक अच्छा खिलाड़ी दे रही है। हरियाणा में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है। कमी है तो बस उस प्रतिभा को पहचान कर तराशने की। क्योंकि आज खेलों के क्षेत्र में हरियाणा में आपार संभावनाएं हैं। 


    

 


भारतीय वैवाहिक व्यवस्था विश्व की सर्वश्रेष्ठ वैवाहिक व्यवस्था क्यों है


- डॉ उमेश प्रताप वत्स

भारतीय समाज में विवाह संबंधों को प्राण से भी बढ़कर महत्वपूर्ण माना जाता है। विश्व के अन्य देशों के लोग यह जानकर आश्चर्य चकित हो जाते हैं कि भारत के लोग किस तरह एक ही साथी के साथ पूरा जीवन गुजार देते हैं तभी तो यहाँ साथी को जीवन साथी कहकर बुलाया जाता है। 

यदि भावना से अलग होकर आकलन किया जाये तो सामाजिक जीवन में वैवाहिक परम्परा दो ज्ञात-अज्ञात महिला-पुरुष को इतने निकट संबंध में लेकर आता है कि बाकि सब संबंध गौण हो जाते हैं। यद्यपि माता-पिता, भाई-बहन व पुत्र-पुत्रियों का भी प्रगाढ़ अटूट संबंध है जिनका महत्व कदापि कम नहीं हो सकता और ये संबंध रक्त के साथ-साथ भावनात्मक भी है तथापि रचनात्मक रूप से विचारे तो मात-पिता का झुकाव अन्य बच्चों की ओर भी हो सकता है। भाई-बहन विवाह उपरांत अपने परिवार में ध्यान देने लगते हैं और बच्चें अपना परिवार होने पर व्यस्त हो जाते हैं। बस! एक पत्नी अथवा पति ही मरते दम तक गाड़ी के दो पहिये की तरह एक साथ मिलकर चलते हुए अपने जीवन की गाड़ी को अपने सपनों की दुनिया में ले जाने का अथक, अविराम निरंतर प्रयास करते ही रहते हैं। हिन्दुस्थान की वैवाहिक परम्पराओं का यदि अध्ययन किया जाये तो यह पृथ्वी लोक पर सर्वाधिक अद्भुत, सांस्कृतिक, परम्परागत, पवित्र, मनोरंजक एवं सामाजिक सुदृढ़ीकरण का सुन्दर संगम है एवं विश्व के लिए मार्गदर्शक भी।परिवार की सर्वाधिक सुदृढ़ कड़ी है भारतीय वैवाहिक व्यवस्था। फिर इस व्यवस्था को ओर अधिक प्रभावी, सुदृढ़ बनाने के लिए हमारे मनिषी, विद्वान महान आत्माओं ने सहस्रों वर्षों से अपना पूरा, ज्ञान, जीवन समर्पित कर दिया। पश्चिम व अन्य देशों में पुरुष को महिला के लिए तथा महिला को पुरुष के लिए आवश्यकता मानकर संबंधों को विकसित किया गया है जबकि हमारे देश में दोनों ससम्मान एक दूसरे के लिए जीवन-भर एक साथ जीने-मरने अर्थात् किसी भी मुसीबत का एक साथ मिलकर सामना करने हेतु संबंध में स्थापित हो जाते हैं। वैवाहिक संबंध पारिवारिक व्यवस्था के लिए आर्थिक प्रावधान के रूप में, आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए, भावनात्मक आधार के रूप में, एक प्रभावशाली समूह के रूप में और सामाजिक विनियमन के एक साधन के रूप में देखा जा सकता है। भारतीय परिवार व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण विशेषता संयुक्त परिवार प्रणाली का अस्तित्व है जो विशुध्द वैवाहिक संबंधों से ओर अधिक दृढ़ होती है। संयुक्त परिवार की विशालता, संयुक्त संपत्ति का स्वामित्व, निवास साझा करना आदि व्यवस्थाएं एक संस्कारी दम्पत्ति पर ही निर्भर है। संयुक्त परिवार में यदि किसी भी दंपति से कोई त्रुटि हो जाये तो अन्य दम्पत्ति उसे तुरंत सुधार लेते हैं तभी संयुक्त परिवार हंसते-हंसते सफलतापूर्वक जीवन की गाड़ी को सरलता से लक्ष्य की ओर ले जाते हैं। परंपरा प्रधान समाज में विवाह एक ऐसी धार्मिक और सामाजिक संस्था है जो किसी भी महिला और पुरुष को एक साथ जीवन व्यतीत करने का अधिकार देने के साथ-साथ दोनों को कुछ महत्वपूर्ण कर्तव्य भी प्रदान करती है। हमारे देश में विभिन्न प्रकार के विवाहों का बड़े पैमाने पर पालन किया जाता है। जैसे-जैसे समाज उन्नत हुआ है, विवाह विभिन्न परिवर्तनों से गुजरा है, जबकि कुछ चीजें स्थिर रहती हैं। यहां तक कि इससे जुड़े मूल्यों में भी अभूतपूर्व बदलाव आया है। समय परिवर्तनीय है तो इसका असर हर युग काल की गति के साथ वैवाहिक परम्पराओं पर पढऩा भी निश्चित था। किंतु भावनाएं नहीं बदलती। भारतीय महिला सतयुग में भी पति का हित चाहती थी, उसके सुख की कामना करती थी, अपने रिश्ते की पवित्रता का महत्व समझती थी और वर्तमान में आज भी वे सर्वप्रथम अपने पति के हित की, सुख की कामना करती हैं। निसंदेह भारत में विवाह और परिवार व्यवस्था में परिवर्तन और अविच्छिन्नता और वैश्वीकरण का प्रभाव देखने को मिलता है। वैश्वीकरण ने लोगों की अधिक गतिशीलता, और विभिन्न संस्कृतियों के लोगों के बीच अधिक बातचीत को जन्म दिया है, जिससे लोगों के मूल्यों और संस्कृति पर प्रभाव पड़ा है। लोगों ने परम्परागत मर्यादाओं को लाँघने का प्रयास किया है। फलस्वरूप अधिकांश परिणाम भी नकारात्मक दिखाई दे रहे हैं। उदाहरण के लिए बड़े शहरों दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई, बैंगलोर आदि में लिव-इन रिलेशनशिप विवाह पूर्व एक नया चलन है, ताकि साथी चुनते समय बेहतर निर्णय लिया जा सके। लिव-इन रिलेशनशिप में शारीरिक वासना की संतुष्टि हो सकती है। एक-दूसरे को समझने का अवसर भी मिल जाता है किंतु यदि एक-दूसरे को समझने के बाद विचार भिन्नता अथवा सामंजस्य न बैठाने की समस्या के कारण संबंध विच्छेद करने का निर्णय लेना पड़े तब अन्य किसी दूसरे संबंधों में भी सामंजस्य की समस्या उत्पन्न हो सकती है और फिर से ऐसा होने पर असुरक्षा की भावना बढ़ जाती है। फलस्वरूप पार्टनर तनाव, विषाद का जीवन जीने लगते हैं। 

आज युवा शैक्षिक अवसरों की तलाश में तथा कैरियर के लिए परिवारों से दूर होते जा रहे हैं। 

युवा वर्ग की इस गतिशीलता ने पारिवारिक संबंधों को कमजोर कर दिया है। युवा अपने माता-पिता, घर में रह रहे बुजुर्गों का ध्यान नहीं रख पा रहे हैं। इससे आदर्श परिवार की धारणा टूटती दिखाई दे रही है। विदेशों की ओर भी युवाओं के रूख में आश्चर्यजनक वृद्धि दिखाई दे रही है। परिवार के ताने-बाने को विदेशों में जाने की यह ईच्छा छिन्न-भिन्न करती दिखाई दे रही है। यह विवाह प्रणाली के परिवर्तन में परिलक्षित हो रहा है। महिलाएं अब अधिक शिक्षित हैं एवं आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं, इसलिए घरेलू निर्णयों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यहां वैश्वीकरण के प्रभाव को आईटी से संबंधित नौकरियों में उत्कर्ष के रूप में देखा जा सकता है। महिलाएं इस क्षेत्र का एक बड़ा भाग हैं। शहरी क्षेत्रों में अच्छी तरह से नियोजित महिलाओं को आजीविका कमाने के साथ-साथ घर के कामों के दोहरे कर्तव्य को संभालने के लिए बढ़ते दबाव का सामना करना पड़ता है।

दाम्पत्य संबंध और माता-पिता के बच्चे के संबंध- विवाहित पुरुष और महिलाएं अपनी रोजगार के कारण भिन्न स्थानों पर अलग-अलग रह रहे हैं। समाज में एकल माता-पिता भी पाए जाते हैं। न केवल वैवाहिक संबंध बल्कि माता-पिता-बच्चों के संबंधों में भी उल्लेखनीय परिवर्तन आया है। अधिकांश कामकाजी दंपति परिवारों में, माता-पिता अपने बच्चों से मिलने और बातचीत करने के लिए समय नहीं दे पाते हैं, क्योंकि वें देर रात तक निजी कंपनियों में काम कर रही हैं। भौतिकता की इस दिशाहीन दौड़ में वें भी सम्मिलित हैं। 

पहले माता-पिता या अभिभावक बच्चों के लिए जीवन साथी का चयन करते थे किंतु वर्तमान में उदार मूल्यों के प्रभाव में, व्यक्तियों ने अपनी पसंद और नापसंद के अनुसार अपने स्वयं के साथी का चुनाव प्रारम्भ कर दिया है।

जीवन साथी के चयन की प्रक्रिया में एक नया चलन उभर रहा है जिसमें सोशल मीडिया डेटिंग साइटों का व्यापक रूप से संगत भागीदारों को खोजने के लिए उपयोग किया जा रहा है।

पहले अंतर्जातीय विवाह निषिद्ध थे। अब इसे कानूनी रूप से अनुमति प्रदान की गई है। युवा यह भी मानने लगे कि विवाह बाध्यात्मक नहीं है। कुछ पुरुष और महिलाएं प्राचीन धार्मिक मूल्यों में विश्वास नहीं करते हैं, और इसलिए विवाह को आवश्यक नहीं मानते हैं। सह-शिक्षा, महिला शिक्षा और समानता और स्वतंत्रता के लोकतांत्रिक आदर्श की वृद्धि, अंतर्जातीय वैवाहिक प्रात: के मजबूत कारक माने जाते हैं। पहले विवाह को एक पुरुष के लिए एक पूर्ण जीवन जीने का कर्तव्य माना जाता था। 1955 में तलाक के लिए प्रावधान किया गया। 1955 के हिंदू विवाह अधिनियम ने कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में तलाक की अनुमति प्रदान कर हिंदू विवाह की संस्था में एक महत्वपूर्ण बदलाव प्रस्तुत किया है। इसके उपरांत भी हिंदुओं के बीच विवाह एक सामाजिक अनुबंध मात्र नहीं है, यह मान्यता सर्वमान्य है। यह अभी भी हिंदुओं के लिए एक संस्कार है। साथी के प्रति समर्पण को आज भी विवाह का सार माना जाता है।

सभी प्रयोगों के बाद अधिकतर युवा यही मानते हैं कि परिवार के समझदार सदस्य वैवाहिक व्यवस्था को भलीप्रकार समझते हैं वे उनके सुझावों का सम्मान करते हैं एवं कालांतर में परिवार के वरिष्ठ सदस्यों में भी एक बड़ा बदलाव आया है कि वे अब व्यर्थ ही अपने निर्णय बच्चों पर नहीं थोपते अपितु बच्चों की बातों का सम्मान करते हुए ही निर्णय लिये जा रहे हैं जो भारतीय वैवाहिक व्यवस्था में सुधारिकरण के लिए बड़ा कदम है। अच्छे संकेत है। 

पायल अक्सर अपनी सहेली जिया से चर्चा करती थी कि तुम बहुत खुशकिस्मत हो जो सब काम अपनी मर्जी से करती हो। मैं तो अपनी मर्जी से बाजार भी नहीं जा सकती। मेरे पापा तो पूरी दिनचर्या बनाकर बैठे रहते हैं कि इस समय यह कार्य करना है, इस समय यह। जिया कहने लगी, हाँ भई! इस मामले में तो मेरे पापा बहुत खुले विचारों के हैं। मैं कहां जाती हूँ, किसके साथ जाती हूँ, उन्हें इसके लिए कोई परेशानी नहीं है बल्कि मम्मी तो मुझे यदा-कदा बिन मांगे पैसे भी दे देती है। पायल को लगता है कि वह कैसे परिवार में फंस गई। सारा दिन या तो पढ़ाई करो और यदि कहीं जाना हैं तो पापा खुुद छोडऩे जायेंगे। एक दिन पायल को पता लगता है कि जिया किसी लड़के साथ लिव- इन-रिलेशनशिप में रहती थी, जो जिया का सबकुछ लुटपाट कर भाग गया। अब जिया डिप्रेशन में चली गई। उसे तुरंत ध्यान आया कि परिवार की जिन मर्यादाओं को वह बंदिश मान चली थी वास्तव में वहीं तो उसकी सुरक्षा चक्र है जिसके सहारे वह निर्भय, स्वछंद जीवन की उड़ान भर सकती है। तब से वह अपने मात-पिता का पहले से भी अधिक सम्मान करने लगी। उसके व्यवहार में एक जबरदस्त बदलाव देखने को मिला। भारतीय संस्कार उसे मर्यादाओं में रहते हुए आगे बढऩे की प्रेरणा दे रहे थे।