चने की खेती से मुहं मोड़ रहे जिले के किसान


साल-दर-साल सिकुड़ता जा रहा चने की खेती का रकबा

नरेंद्र कुंडू


जींद। कृषि विभाग किसानों को तिलहन व दलहन फसलों के लिए प्रेरित करने के लिए चाहे कितने भी प्रयास क्यों न कर रहा हो लेकिन विभाग के लाख प्रयास के बावजूद भी किसान तिलहन व दलहन फसलों की तरफ रूख नहीं कर रहे हैं। तिलहन व दलहन फसलों का रकबा लगातार कम हो रहा है और गेहूं व धान की फसलों के रकबे में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। अगर पिछले 4 दशकों के आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो साल-दर-साल चने की खेती का रकबा सिकुड़ रहा है। दलहन फसलों का यह आंकड़ा सिर के बल गिर है। फिलहाल जिले में चने की खेती का रकबा सिर्फ 500 हैक्टेयर के लगभग ही बचा है जबकि वर्ष 1967-68 के समय में जिले में अकेले चने की खेती का रकबा 1 लाख हैक्टेयर के लगभग था। 
कृषि विभाग किसानों को दलहन व तिलहन फसलों के प्रति प्रेरित करने के लिए हर वर्ष विशेष अभियान चलाकर लाखों रुपए खर्च करता है लेकिन विभाग के तमाम प्रयासों के बावजूद भी किसान तिलहन व दलहन फसलों को नहीं अपना रहे हैं। विभाग से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार जिले में दलहन फसलों में सबसे ज्यादा कमी चने की खेती के रकबे में हुई है। चने की खेती के रकबे में जहां कमी आई है वहीं गेहूं व धान की खेती के रकबे में बढ़ोतरी हुई है। जिले में इस समय कृषि योज्य जमीन का रकबा लगभग 2 लाख 40 हजार हैक्टेयर है। इसमें से रबी फसलों के सीजन में अकेले 2 लाख 17 हजार हैक्टेयर में गेहूं की फसल और साढ़े 6 हजार में सरसों की फसल होती है। इस समय जिले में सिर्फ 500 हैक्टेयर में ही चने की खेती होती है। बाकी बची जमीन में हरा चारा व अन्य फसलों की खेती होती है। इसके अलावा खरीफ के सीजन में 1 लाख 6 हजार हैक्टेयर के लगभग में धान की खेती होती है। इस प्रकार जिले में चने की खेती का रकबा लगातार कम हो रहा है। अब जिले के किसान फसल चक्र को बदलने की बजाए सिर्फ धान व गेहूं की खेती की तरफ ही आकॢषत हो रहे हैं। दलहन व तिलहन की खेती से किसानों का मोह भंग होने व फसल चक्र में बदलाव नहीं होने के कारण जमीन में जरूरी पोषक तत्वों की भी भारी कमी हो रही है। 

क्यों कम हो रहा है चने की खेती का रकबा

कृषि विभाग के अधिकारियों की मानें तो पहले फसलों की सिंचाई के लिए भूजल की बजाए बरसात व नहरी पानी पर ही ज्यादातर किसान आधारित होते थे। किसानों के पास भूमिगत जल के स्त्रोत भी नामात्र के ही होते थे। भू जल का दोहन कम होने के कारण भूजल चने की खेती के लिए उपयुक्त भी होता था। लेकिन अब सभी किसानों के पास सिंचाई के पर्याप्त साधन हैं। लगभग सभी किसानों के पास ट्यूबवैल की सुविधा है। सिंचाई के साधनों के बढऩे से भूजल का दोहन भी काफी बढऩे लगा और इससे भूमिगत पानी खराब होने लगा। भूमिगत जल खराब होने के कारण जमीन में नमक की मात्रा बढऩे लगी जो चने की खेती के लिए उपयुक्त नहीं है। इससे चने के उत्पादन में भारी कमी आई और चने की खेती से किसानों का मोह भंग होने लगा। अब गेहूं व धान की खेती के प्रति ही किसानों का रूझान बढ़ रहा है लेकिन फसल चक्र में बदलाव नहीं होने के कारण जमीन में जरूरी पोषकतत्वों की कमी भी हो रही है। 

नए किस्म के बीज किए जा रहे हैं तैयार

इस बारे में जब कृषि विभाग के जिला उपनिदेशक आर.पी. सिहाग से बातचीत की गई तो उन्होंने बताया कि विभाग द्वारा किसानों को तिलहन व दलहन फसलों की खेती के लिए प्रेरित किया जाता है। ज्यादातर किसान चने की फसल में ट्यूबवैल का पानी लगाते हैं लेकिन जमीनी पानी चने की खेती के लिए उपयुक्त नहीं है। जमीनी पानी में कुछ ऐसे साल्ट हैं जिन्हें चने की फसल सहन नहीं कर पाती। विभाग द्वारा चने की खेती करने वाले किसानों को ज्यादा से ज्यादा नहरी पानी लगाने के सुझाव दिए जाते हैं। इसके अलावा विभाग द्वारा किसानों को दलहन व तिलहन फसलों के प्रति किसानों को प्रेरित करने के लिए अनुदान पर बीज भी मुहैया करवाया जाता है। दलहन व तिलहन फसलों की कम हो रही जोत के प्रति विभाग ङ्क्षचतित है। इसलिए ऐसे बीज तैयार किए जा रहे हैं जो जमीनी पानी के साल्ट को सहन कर सकें। 

वर्ष चने की पैदावार हैक्टेयर में 

1966-67 85 हजार
1967-68 1 लाख 1 हजार
1968-69 99 हजार
1969-70 98 हजार
1970-71 95 हजार
1971-72 96 हजार
1972-73 90 हजार
1973-74 88 हजार
1974-75 76 हजार
1975-76 70 हजार
1976-77 65 हजार
1977-78 63 हजार
1978-79 65 हजार
1979-80 65 हजार
1980-81 81 हजार
1981-82 85 हजार
1982-83 32 हजार
1983-84 44 हजार
1984-85 49 हजार
1985-86  37 हजार
1986-87 9 हजार
1987-88 38 हजार
1988-89 28 हजार
1989-90 31 हजार
1990-91 10 हजार
1991-92 8 हजार
1992-93 14 हजार
1993-94 14 हजार
1994-95 12 हजार
1995-96 11 हजार
1996-97 10 हजार
1997-98 7 हजार 
1998-99 2 हजार 
1999-2000 1 हजार
2000 के बाद यह आंकड़ा कम होकर 500 हैक्टेयर के लगभग रह गया। 

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