जल संस्कृति को बचाना होगा
नरेंद्र कुंडू
एक तरफ हम जल को देवता मानकर उसकी पूजा करते हैं, तो दूसरी तरफ इस देवता का निरादर करने में किसी भी तरह पीछे नहीं रहते हैं। कारण व्यत्तिफ़ हो या बाजार, हर कोई अपनी-अपनी तरह से इस दोहन में शामिल है। आज जरूरत है कि हम जल के प्रति अपने संस्कार और संस्कृति को पुनर्जीवित करें। पानी के बिना मनुष्य जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। जन्म से लेकर मृत्यु तक पानी का हमारे जीवन में बहुत बड़ा स्थान है बल्कि कह सकते हैं कि पानी ही उसकी धुरी है। हमारे शास्त्रें में कहा गया है कि जल में ही सारे देवता रहते हैं। इसीलिये जब कोई धार्मिक अनुष्ठान होता है तो सबसे पहले कलश यात्र निकलती है। हम किसी पवित्र सरोवर या जलाशय में जाते हैं और वहां से अपने कलश में जल भरकर ले आते हैं। चूंकि जल में हमारे सभी देवता बसते हैं इसलिये हम उसकी पूजा करते हैं और फिर उसी जलाशय में उसका विसर्जन कर देते हैं। इस तरह व्यष्टि को समष्टि में मिला देते हैं। ‘अमरकोश’ में जल के कई नाम गिनाये गये हैं। उसमें जल के लिये एक नाम जीवन भी है। जीवन जलम। अब सवाल यह है कि जल जो हमारी संस्कृति में इतना अहम स्थान रऽता रहा है, उसकी इतनी दुर्दशा क्यों हो रही है? कारण दैवीय और आसुरी शत्तिफ़यों के संघर्ष में छिपा है। यह संघर्ष सनातन है। कभी एक पक्ष की शत्तिफ़ बढ़ती है, कभी दूसरे की। जो जल संरक्षण के लोग हैं वे दैवीय शत्तिफ़ के लोग हैं। दूसरी तरफ आसुरी शत्तिफ़यां हैं जो जल को नष्ट करने का स्वाभाविक रूप से प्रयास करती रहती हैं। जब हम पूजा में बैठते हैं तो सबसे पहले कलश में जल की उपासना करते हैं कि वे कलश में आ कर विराजमान हों। इस समय हम एक मंत्र पढ़ते हैं जिसमें सभी नदियों, जलाशय और समुद्र का आ“वान करते हैं कि वे इस कलश में विराजें और देवी पूजा में सहायक हों। जब हम ऐसा करते हैं तो हमें इस बात का भी एहसास होता है कि देवी पूजा के लिये जिस जल का हम आ“वान कर रहे हैं उसे प्रदूषणमुत्तफ़ बनाना भी हमारा कर्त्तव्य है। अन्यथा प्रदूषित पानी कलश में आएगा और हमें उसी से देवी-देवताओं की पूजा करनी पड़ेगी। हम मानते हैं कि जल में दो प्रकार की शत्तिफ़ है। एक तो वह भौतिक मैल को धोता है। दूसरा उसमें आधि भौतिक मैल धोने की भी शत्तिफ़ है। यदि जल संरक्षण के उपाय शीघ्र न किये गये तो जल संस्कृति का भविष्य खतरे में घिरता नजर आ रहा है।
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