आस्था की पराकाष्ठा है गुरु पूजन की परम्परा


-डॉ. उमेश प्रताप वत्स  

गुरु पूर्णिमा प्रत्येक वर्ष आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को मनाई जाती है। भारत के हर गांव-शहर में शिष्य अपने गुरुओं के प्रति अगाध प्रेम का प्रदर्शन करते हैं। गुरु के चरणों में अपना सर्वस्व समर्पण करने के लिए तत्पर रहते हैं। इस दिन शिष्य अपने गुरु की विशेष पूजा करते हैं, यथाशक्ति दक्षिणा, पुष्प, वस्त्र आदि भेंट करते हैं एवं शिष्य इस दिन अपने सारे अवगुणों को गुरु को अर्पित कर देते हैं। बहुत से लोग इसी दिन गुरु नाम धारण करते हैं तथा गुरु दीक्षा लेते हैं। गुरु पूर्णिमा दिवस के महत्व को समझते हुए कोई भी व्यक्ति किसी विद्वान गुरु से गुरु दीक्षा ले सकते हैं, जो आपके जीवन में किसी भी अवसर पर आपका मार्गदर्शन करने में समर्थ हो। अधिकतर स्थानों पर गुरु पूर्णिमा के दिन भक्त उपवास रखते हैं और भगवान विष्णु और चंद्र देव से समृद्धि और खुशी के लिए प्रार्थना करते हैं। इस शुभ दिन पर लोग देवी लक्ष्मी और भगवान विष्णु को समर्पित मंदिरों में जाते हैं और सत्यनारायण व्रत रखते हैं। वैदिक शास्त्रों के अनुसार आदि गुरु शंकराचार्य जी को सर्व जगत का गुरु माना गया है। इस दिन शंकराचार्य जी का भी पूजन कर सकते हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में इस पूर्णिमा को आषाढ़ पूर्णिमा, व्यास पूर्णिमा और वेद व्यास जयंती के नाम से भी जाना जाता है। यह दिन ऋषि वेद व्यास की याद और श्रद्धा के लिए भी मनाया जाता है। शास्त्रों में यह भी कहा जाता है कि गुरु पूर्णिमा के दिन ही महर्षि वेदव्यास ने चारों वेद की रचना की थी और इसी कारण से उनका नाम वेद व्यास पड़ा। 

हिंदू धर्म के धार्मिक शास्त्रों में गुरु पूर्णिमा के उत्सव को न केवल महत्वपूर्ण माना जाता है, बल्कि पवित्र भी माना जाता है। सदियों पुरानी संस्कृति में गुरु को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा माना गया है और इसलिए समाज व इसकी निर्माण प्रक्रिया में गुरु एक अभिन्न अंग है। 

गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरा:, गुरु साक्षात परम ब्रह्मा, तस्मै श्री गुरुवे नम:।

अर्थात् हे गुरु, आप देवताओं के समान हैं। आप ही ब्रह्मा, विष्णु और शिव शंभू है, आप देवताओं के देवता परम ब्रह्मा है। हे गुरुवर मैं नतमस्तक होकर आपको नमन करता हूं।

उल्लेखनीय है गुरु पूर्णिमा का पावन पर्व उन महान शिक्षकों और गुरुओं को समर्पित है, जो हमारे भविष्य का निर्माण करते हैं। एक गुरु या शिक्षक वह होता है जो हमारे जीवन में एक मार्गदर्शक की तरह काम करता है, जो हमें हमारी बेहतरी के लिए सही रास्ते पर ले जाता है। अत: गुरु पूर्णिमा के दिन उनकी पूजा की जाती है। 

सनातन परंपरा के अनुसार माता को प्रथम गुरु, पिता को दूसरा गुरु माना गया है तथा जीवन की शिक्षा देने वाले महानुभव को तीसरा गुरु माना गया है। माता-पिता हमारे जीवन के प्रारम्भिक शिक्षक होते हैं और इस प्रकार भारतीय संस्कृति भी माता-पिता को गुरु मानती है। प्राचीन काल में बच्चों को शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरुकुल में भेजा जाता था जहां उन्हें यज्ञोपवीत पहनाया जाता था। यज्ञोपवीत के तीन धागे माता, पिता एवं गुरु के सम्मान का ही प्रतीक हैं। गुरुकुल में उन्हें विभिन्न विषयों की शिक्षा दी जाती थी। गुरु उन्हें जीवन में सही दिशा खोजने में मदद करता था। 

गुरुकुल पद्धति में गुरु दक्षिणा का महत्व बहुत अधिक माना गया है। गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करने के बाद जब अंत में शिष्य अपने घर जाता है तब उसे गुरु दक्षिणा देनी होती है। गुरु दक्षिणा का अर्थ कोई धन-दौलत से नहीं है। यह गुरु के ऊपर निर्भर है कि वह अपने शिष्य से किस प्रकार की गुरु दक्षिणा की मांग करें।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गुरू दक्षिणा कार्यक्रम छह उत्सव में से एक है। संघ स्वयं में ऐसा एकमात्र समाजसेवी संगठन है जो आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर है और किसी दूसरे से चंदा नहीं लेता। संघ के स्वयंसेवक वर्ष में एक बार अपनी शाखा पर समर्पण भाव से भगवा ध्वज के समक्ष दक्षिणा करते हैं, जिसे गुरु दक्षिणा कहा जाता है। हिंदू कैंलेडर के अनुसार आरएसएस का व्यास पूर्णिमा से रक्षाबंधन एक महीने तक गुरू दक्षिणा का कार्यक्रम चलता है। इस दौरान स्वयंसेवक संघ में गुरू माने जाने वाले भगवा ध्वज के सामने यह समर्पण राशि रखते हैं। इसे गुप्त रखा जाता है यानी दक्षिणा की राशि और देने वाले का नाम सार्वजनिक नहीं किया जाता, लेकिन हर एक पैसे का पूरा हिसाब रखा जाता है। अर्थात् गुरुपूजन की समर्पण राशि का उपयोग व्यक्तिगत न होकर संगठन के विस्तार के लिए ही किया जाता है। किसी भी संगठन के खत्म होने, कमजोर होने या भ्रष्ट होने का सबसे बड़ा कारण आर्थिक तौर पर दूसरों या सरकारों पर निर्भर होना होता है, लेकिन डॉ. हेडगेवार ने संघ को आत्म निर्भर बनाया और इसके लिए गुरू दक्षिणा की परपंरा शुरू की।

भारतीय इतिहास गुरु-शिष्य की प्रेरणादायी कहानियों से ओत-प्रोत है। गुरु दक्षिणा के स्मरणीय, अनुकरणीय उदाहरण गुरु-शिष्य के पावन संबंध को ओर भी अटूट, प्रगाढ़ कर जाते हैं। भगवान राम ने भ्राता लक्षमण के साथ जब गुरुकुल की शिक्षा पूर्ण करने के बाद गुरु को दक्षिणा देनी चाही तो गुरु विश्वामित्र ने कहा कि हे राम! ऋषि-मुनि असुरों के अत्याचारों से बहुत ही व्यथित हैं तो राम ने दक्षिणा के रूप में संकल्प लिया कि निश्चर हीन करूं मही को अर्थात् मैं संकल्प लेता हूं कि धरती को असुरों से वंचित कर दूंगा। 

एक बार बारिश की गर्जना में गुरु जी अपने 2-3 शिष्यों के साथ आश्रम के कार्य से बाहर गये और खेतों में सुरक्षा के लिए बालक आरुणि को दायित्व देकर चले गए। वापिस लौटे तो रात हो चुकी थी। आरुणि के दिखाई न दिये जाने पर उन्होंने खेत में जाकर आरुणि को पुकारा। वह वर्षा में खेत की मेंढ़ टूट जाने पर स्वयं वहां लेट गया जिस कारण आरुणि से ठंड के मारे बोला तक नहीं जा रहा था। आरुणि ने किसी प्रकार अपने गुरुदेव की पुकार का उत्तर दिया। महर्षि ने वहां पहुंचकर उस आज्ञाकारी शिष्य को उठाकर हृदय से लगा लिया, आशीर्वाद दिया- ‘पुत्र आरुणि! तुम्हें सब विद्याएं अपने-आप ही आ जाएं।’ गुरुदेव के आशीर्वाद से आरुणि विद्वान हो गये। यह उनकी सच्ची गुरु दक्षिणा का प्रतिफल था। 

इसी तरह कृष्ण व बलदेव ने संदीपनि के आश्रम में कुछ ही महीनों में समस्त प्रकार की विद्या ग्रहण कर शिक्षा समाप्त कर दी। जब गुरु दक्षिणा देने की बारी आई तो ऋषि सांदीपनि ने कृष्ण से अपने पुत्र की मृत्यु के बारे में बताया। उनके जिस पुत्र को समुद्र में एक मगर निगल गया था, उसी को ला देने की बात कृष्ण से कही। कृष्ण ने अपने गुरु को पुत्र के लिए आत्र्त देखकर उनका पुत्र ला देने की प्रतिज्ञा की और कृष्ण-बलराम ने यमपुर जाकर यमराज से उनके पुत्र को वापस लाकर दिया। 

महाभारत काल में जब गुरु द्रोणाचार्य केवल राजकुमारों को शस्त्र की शिक्षा दिया करते थे तो ऐसे में एक भील बालक एकलव्य ने धनुर्विद्या सीखने की इच्छा जताई, गुरु द्रोण ने राजपरिवार से जुड़े होने के कारण अपनी विवशता दर्शायी। तब एकलव्य ने अपने गुरु की बनाई मूर्ति से धनुर्विद्या सीखी थी। जब गुरु को यह बात पता चली तो उन्होंने गुरु दक्षिणा के रूप में एकलव्य का अंगूठा मांग लिया। एकलव्य ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपना अंगूठा काटकर अपने गुरु को दे दिया था। 

तभी संत कबीर जी ने कहा है कि- ‘गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय। बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।’

अर्थात् गुरू और भगवान एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करना चाहिए, गुरू को अथवा गोबिन्द को? ऐसी स्थिति में गुरू के श्रीचरणों में शीश झुकाना उत्तम है, जिनके कृपा रूपी प्रसाद से गोविन्द का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

ऐसे ही छत्रपति शिवाजी अपने गुरु के आदेशानुसार शेरनी का दूध निकालकर ले आए और गुरु दक्षिणा के रूप में पूरे महाराष्ट्र को जीतकर अपने गुरु के चरणों में रख दिया था। महर्षि दयानन्द जब शिवरात्रि के दिन घर से सच्चे गुरु की खोज में निकले तो गुरुवर स्वामी विरजानंद ने उन्हें पाणिनि व्याकरण, वेद-वेदांग व योगसूत्र की शिक्षा प्रदान की। शिक्षा पूर्ण होने पर गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा- ‘विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्धार करो, मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। यही तुम्हारी गुरुदक्षिणा है।’ उन्होंने आशीर्वाद दिया कि ईश्वर उनके पुरुषार्थ को सफल करे। उन्होंने अंतिम शिक्षा दी- मनुष्यकृत ग्रंथों में ईश्वर और ऋषियों की निंदा है, ऋषिकृत ग्रंथों में नहीं। वेद प्रमाण हैं। इस कसौटी को हाथ से न छोडऩा। स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरु के आदेश से पूरे विश्व में सनातन धर्म का प्रचार-प्रसार किया। 

कबीर जी कहते हैं कि - ‘कबीरा ते नर अंध है, गुरु को कहते और, हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर।’

अर्थात् कबीर दास जी कहते हैं कि वे लोग अंधे और मूर्ख हैं जो गुरु की महिमा को नहीं समझ पाते। अगर ईश्वर आपसे रूठ गया तो गुरु का सहारा है, लेकिन अगर गुरु आपसे रूठ गया तो दुनियां में कहीं आपका सहारा नहीं है।

प्राचीन काल की बात है। एक गुरु अपने आश्रम को लेकर बहुत चिंतित थे। वह महसूस कर रहे थे कि उनकी उम्र बढ़ती जा रही है। अपना शेष जीवन वह हिमालय में बिताना चाहते थे। चिंता इस बात को लेकर थी कि उनके बाद उनकी जगह कौन लेगा। आश्रम में दो योग्य शिष्य थे और दोनों ही गुरु को प्रिय थे। आखिर उन्हें एक युक्ति सूझी। उन्होंने दोनों को बुलाया और कहा, ‘मैं तीर्थ पर जा रहा हूं। ये दो मु_ी गेहूं मेरे पास हैं। दोनों को एक-एक मु_ी दे रहा हूं। तुम इसे अच्छी तरह संभाल कर रखना और जब मैं आऊं तो मुझे सुरक्षित लौटा देना। जो शिष्य मुझे अपने हिस्से का गेहूं सुरक्षित वापस कर देगा, मैं उसे ही गुरुकुल का गुरु नियुक्त करूंगा।’ यह आज्ञा देकर गुरु चले गए।

एक शिष्य ने गुरु के दिए हुए एक मु_ी गेहूं की पोटली बनाई और उसे पवित्र व सुरक्षित स्थान पर रख दिया। वर हर रोज उस पोटली की पूजा करने लगा। दूसरे शिष्य ने एक मु_ी गेहूं को गुरुकुल के पीछे खेत में बो दिया। कुछ महीनों बाद जब गुरु आए तो एक शिष्य ने गुरु को गेहूं की पोटली लौटा दी और बताया कि वह रोज इसकी पूजा करता था। गुरु ने देखा गेहूं सड़ चुके हैं और अब वे किसी काम के नहीं रहे। दूसरा शिष्य गुरु को आश्रम के पीछे ले गया और गेहूं की लहलहाती फसल दिखाकर कहा, ‘मुझे क्षमा करें गुरुजी, जो गेहूं आप दे गए थे उन्हें मैं अभी नहीं दे सकता।’ गेहूं की लहलहाती फसल देखकर गुरु का चित्त प्रसन्न हो गया। उन्होंने कहा कि जो शिष्य गुरु के ज्ञान को फैलाता है, वही श्रेष्ठ पात्र है। गुरुदक्षिणा का वास्तविक अर्थ गुरु के ज्ञान का प्रसार है।

आज के समय में गुरु दक्षिणा की अवधारणा कम हो गई है। इस आधुनिक युग में हम केवल शिक्षक दिवस पर ही ग्रीटिंग कार्ड गैलरी और फूलों की दुकानों पर विद्यार्थियों की भीड़ देख सकते हैं। यह कार्य, शिक्षक के प्रति दृष्टिकोण या प्रेम और भक्ति दिखाने के लिए किया जाता है। शिक्षक विज्ञान, गणित, इतिहास, भूगोल और कई अन्य क्षेत्रों में ज्ञान प्रदान करते हैं। लेकिन भारत के प्राचीन काल से यह काफी अलग है। आज भी अनेक स्थानों पर अच्छे शिक्षक मिल जाते हैं, जोकि मिलनसार, मददगार और अपने विद्यार्थियों की जरूरतों को स्वयं से भी ऊपर रखते हैं। जब भी आप किसी ऐसे व्यक्ति से मिलें जो आपके जीवन में आपका मार्गदर्शन करता है या आपको कोचिंग देता है या आपके जीवन को बेहतर और सार्थक बनाने के लिए आपको सलाह देता है, तो आप जिस भी रूप में कर सकते हैं, उसे वापस देने का दृष्टिकोण रखें। अपने शिक्षकों और गुरुओं का आभार प्रकट करें। यह गुरु और विद्यार्थी के बीच आदान-प्रदान किया जाने वाला एक प्रकार का प्रेम और सम्मान है। गुरु को दक्षिणा देने के लिए अपने अहंकार, ज्ञान, पद व शक्ति, अभिमान सभी गुरु के चरणों में अर्पित कर दें। यही सच्ची गुरु दक्षिणा होगी। 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सेवा भारती संस्था समाज के सहयोग से नि:स्वार्थ भाव से कार्य करती है : डॉ. सुरेंद्र पाल

विदेशों में भी मचा रहे हरियाणवी संस्कृति की धूम

अब किसानों को कीट साक्षरता का पाठ पढ़ाएंगी खापें