मंगलवार, 6 नवंबर 2012

इलैक्ट्रोनिक आइटमों की मार से फीकी पड़ी दीये की चमक

परम्परा को कायम रखने के लिए अपने पुस्तैनी कारोबार को नहीं छोड़ पा रहे हैं कुंभकार

नरेंद्र कुंडू
जींद। आधुनिकता की चकाचौंध व बाजारों में इलैक्ट्रोनिक आइटमों की भरमार के कारण मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कारीगर (कुम्हार) अपने इस पुस्तैनी कारोबार से मुहं मोडऩे पर विवश हैं। पुर्वजों से विरास्त में मिले इस रोजगार से अब वह अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का भी जुगाड़ नहीं कर पा रहे हैं। केवल परम्परा को कायम रखने के लिए ही कुम्हार अपने इस पुस्तैनी कारोबार को चलाए हुए हैं। कारीगरों को बर्तन बनाने के लिए मिट्टी की व्यवस्था से लेकर बर्तनों की बिक्री तक अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। कारीगरों को उनकी मेहतन के अनुसार बर्तनों के पैसे नहीं मिल पाते हैं। गर्मी के सीजन के बाद केवल दीपावली पर एक माह तक ही उनका कारोबार चलता है। इसके बाद उनका यह कारोबारा पूरे वर्ष ठप्प रहता है। शहर में लगभग 20 से 25 कारीगर इस काम से जुड़े हुए हैं। इस एक माह के इस सीजन के दौरान एक कारीगर लगभग एक लाख रुपए तक का कारोबार कर लेता है लेकिन इस एक लाख के कारोबार से एक कारीगर को केवल 10 से 15 हजार रुपए की ही बचत होती है। 

क्यों पड़ती है मिट्टी के दीयों की जरूरत

दीपावली पर पूजा में शुद्धता बनाए रखने के लिए तांबा, पीतल, स्टली व अन्य धातुओं से निॢमत वस्तुओं की बजाए मिट्टी को शुद्ध माना जाता है और शुद्धता से ही पूजा पूर्ण मानी जाती है। इसलिए पूजा के दौरान मिट्टी से निॢमत दीयों की जरूरत पड़ती है। लोगों में पूजा में शुद्धता की आस्था के कारण ही कुम्हारों का कारोबार थोड़ा बहुत चल रहा है। 
मिट्टी से तैयार किए गए नए डिजाइन के दीये।

रोजगार बचाने के लिए मॉडर्न पद्धित का लिया सहारा 

अपने पुस्तैनी कारोबार को आगे बढ़ाने तथा अपने रोजगार को बचाने के लिए कुम्हारों ने भी मॉडर्न पद्धित का सहारा लिया है। लोगों का रूझान मिट्टी से निॢमत बर्तनों की तरफ आकॢषत करने के लिए कारीगरों ने दीयों व अन्य बर्तनों में फैंसी डिजाइन डालकर नया लूक दिया जाता है। इस बार कुम्हारों के पास मिट्टी से निर्मित हटड़ी, फैंसी दीये, स्टैंड वाले दीयों के अलावा साधारण दीये तैयार किए गए हैं। 

खाली जगह की तलाश में खाने पड़ते हैं धक्के

कारीगरों के सामने मिट्टी से बर्तन तैयार करने के बाद बर्तनों को पकाने के लिए जगह की कमी भी आड़े आती 
है। बर्तन तैयार होने के बाद बर्तनों को पकाने के लिए भठ्ठ लगाने के लिए खाली जगह की जरूरत पड़ती है। कारीगर बुद्धराम व राजेंद्र ने बताया कि शहर में खाली जगह उपलब्ध नहीं होने के कारण कारीगरों को खाली जगह की तलाश के लिए भी शहर में इधर-उधर भटकना पड़ता है। खाली जगह मिलने के बाद उसे किराये पर लेकर वहां भठ्ठ लगाया जाता है। 

मिट्टी की कमी आती है आड़े

मिट्टी के दीये व बर्तन बनाने के लिए चिकनी मिट्टी की आवश्यकता होती है। पहले इस तरह की चिकनी मिट्टी गांव के तालाबों में मिल जाती थी, जिस कारण मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कारीगरों को मिट्टी के लिए इधर-उधर नहीं भटकना पड़ता था लेकिन अब तालाबों में गंदगी फैलने के कारण चिकनी मिट्टी खत्म हो चुकी है। तालाबों की मिट्टी कीचड़ में तबदील हो गई है। पूरे जिले में सिर्फ कुछ गिने-चुने गांवों जैसे डाहोला, ईक्कस, खटकड़ व निडाना में ही इस तरह की मिट्टी मिलती है। जिस कारण मिट्टी से बर्तन बनाने वाले कारीगरों के सामने मिट्टी की कमी आड़े आ रही है। अब बर्तनों के निर्माण के लिए आस-पास के गांवों से मिट्टी मंगवानी पड़ती है। ग्रामीण क्षेत्र से मिट्टी मंगवाने के लिए कुंभकारों को अतिरिक्त पैसे खर्च करने पड़ते हैं। कारीगर विनोद ने बताया कि उन्हें एक मिट्टी ट्राली के लिए 1800 रुपए खर्च करने पड़ते हैं। इसके अलावा मिट्टी के बर्तनों को पकाने के लिए ईंधन भी खरीदना पड़ता है। इस प्रकार उनके इस कारोबार में लागत ज्यादा होने के कारण आमदनी कम है। 
 चाक पर मिट्टी से दीये बनाता कारीगर।



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