रविवार, 25 नवंबर 2012

जनता क्या बदना चाहती है सत्ता या व्यवस्था?


नरेंद्र कुंडू

जींद। जैसे-जैसे यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार के मामले एक-एक करके पर्दे से बाहर आ रहै है, वैसे-वैसे ही राजनीति के गलियारों की हलचल भी बढ़ती जा रही हैं। देश में परिवर्तन के नाम की आंधी उठने लगी है। कहीं विपक्षी पाॢटयां सत्ता परिवर्तन की आवाज बुलंद कर रही हैं तो कहीं सामाजिक संगठन या अन्य दल पूरी व्यवस्था के परिवर्तन पर जोर दे रहे हैं। सत्तासीन सरकार के माथे पर भ्रष्टाचारी सरकार का लेबल चसपाकर देश में मध्यावर्ति चुनाव का माहौल तैयार किया जा रहा है। सत्ता परिवर्तन के लिए सभी राजनैतिक दल पूरे जोर-शोर से तैयारियों में जुटे हुए हैं। फिर से देश में रैलियों का दौर शुरू हो चुका है। टिकट के दावेदारों द्वारा अपनी ताकत का ऐहसास करवाने के लिए रैली में अधिक से अधिक भीड़ जुटाकर अपने आकाओं की नजरों में अपना कद बढ़ाने की पूरजोर कोशिश की जा रही है। राजनैतिक पार्टियों के बीच वाक युद्ध का दौर पूरे यौवन पर है। मंच रूपी रथ पर सवार होकर शब्द रूपी बाणों से नेता एक-दूसरे का सीना छलनी कर रहे हैं। अपने दाग को छुपाने के लिए दूसरों के दामन पर कीचड़ उछाला जा रहा है। राजनैतिक दल जनता-जर्नादन का समर्थन पाने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं। रैलियों में प्रचार-प्रसार के नाम पर करोड़ों रुपया बर्बाद किया जा रहा है लेकिन रैली में जो पैसा खर्च हो रहा है उस तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता है। कोई ये पुछने वाला नहीं है कि रैली में जो पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है आखिर वह किसका है, कहां से आया है और क्यों बर्बाद किया जा रहा है? ये इस देश का दुर्भाग्य कहें या उन सफेदपोश नेताओं का सौभाग्य जो जनता की आंखों पर स्वार्थ की पट्टी बांधकर बड़े आराम से अपना काम निकाल कर जनता के बीच से गायब हो जाते हैं और जनता को उस झूठे आश्वासन रूपी मायाजाल के पीछे छिपे इतने बड़े देश का अहित भी नजर नहीं आता। जनता भी इस बात को नहीं समझना चाहती है कि जिस कुर्सी के लिए इतना पैसा उस पर लुटाया जा रहा है आखिर वह वापिस भी तो उसे अपनी ही जेब से करना है। 
सुरशामुखी की तरह बढ़ रही महंगाई व आए दिन सरकार के मंत्रियों पर लग रहे भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण देश की जनता भी निराश हो चुकी है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि जब जनता किसी पार्टी की जनविरोधी नीतियों के कारण इस तरह से निराश हुई हो। ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है लेकिन परिणाम क्या निकला जिस उम्मीद से सत्ता परिर्वतन कर दूसरे हाथों में देश की बागडोर सौंपी वह भी अपने वायदों पर खरे नहीं उतर पाए। उन्होंने भी सत्ता में आते ही जनता का चीरहरण शुरू कर दिया। इसी फेरबदल में अगर कुछ बदला तो वह था सिर्फ पार्टी का नाम व कुर्सी पर बैठने वाले नेता का चेहरा लेकिन विचार तो वही पहले वाले थे। यह खेल तो सदियों से चलता आ रहा है और तब तक चलता रहेगा जब तक इस देश की जनता जागृत नहीं होगी। व्यवस्था परिवर्तन के इस फेर में न जाने कितने भगत सिंह शहीद हो गए। भगत सिंह अंग्रेजों के खिलाफ नहीं थे वे तो उनकी व्यवस्था के खिलाफ थे। भगत सिंह  की लड़ाई केवल देश की आजादी के लिए नहीं थी। उनकी लड़ाई तो पूरी व्यवस्था के खिलाफ थी। उनकी लड़ाई तो मानव द्वारा मानव के शोषण के खिलाफ थी। वे साम्राज्यवाद की नहीं समाजवाद की स्थापना करना चाहते थे लेकिन जनता उनके विचारों की गहराइयों को नहीं समझ पाई और बिना जनता के सहयोग के नतीजा क्या निकला। गौरे अंग्रेज चले गए तो काले अंग्रेजों ने अपना शासन जमा लिया। गुलामी के उन 250 सालों में और आजादी के इन 65 सालों में क्या बदला है। पूरा का पूरा सिस्टम वही है जो अंग्रेजी हुकूमत में चलता था। आजादी के इन 65 सालों में अमीर व गरीब के बीच की खाई कम होने की बजाए ओर बढ़ी है। गरीब गरीब होता जा रहा है तथा अमीर ओर अमीर होता जा रहा है। आज देश में समाजवादी व्यवस्था नहीं पूंजीवाद व्यवस्था का बोलबाल है। इसका कारण है देश की जनता में चेतना न होना। अगर व्यवस्था परिवर्तन करना है तो सबसे पहले गरीब तबके को परिवर्तन की मशाल उठानी होगी, उसे खुद अपने अधिकारों के प्रति जागृत होना होगा। सत्ता में बैठे नेताओं से अपना हिसाब मांगना होगा। क्योंकि अमीर आदमी को तो सिस्टम के खिलाफ आवाज उठाने की जरूरत है नहीं, मध्यम वर्ग के पास इसके लिए फुर्सत नहीं है और गरीब वर्ग इसे बदलना नहीं चाहता है। अब इसका फैसला तो खुद जनता की अदालत को ही करना है कि वह क्या बदलना चाहती है सत्ता या व्यवस्था? 

बदलना होगा चुनावी सिस्टम। 

अगर इस देश में व्यवस्था परिवर्तन करना है तो सबसे पहले चुनाव के इस सिस्टम को ही बदलना होगा। चुनाव के इस सिस्टम को बदल कर ऐसा सिस्टम खड़ा करना होगा, जिसमें उम्मीदवार का व्यक्तिगत कोई खर्च न हो। अगर उम्मीदवार चुनाव प्रचार पर लाखों रुपए खर्च करेगा तो यह जाहिर है कि वह सत्ता में आने के बाद उन लाखों के बदले करोड़ों कमाएगा भी। इससे समाजवाद की नहीं पूंजीवाद की ही नींव रखी जाएगी। इसके बाद जरूरत है कठोर कानून प्रक्रिया की। अगर भ्रष्टाचार को रोकना है तो सबसे पहले भ्रष्टाचार में दोषी पाए जाने वाले के खिलाफ कानून में कठोर दंड व उसकी सारी संपत्ति को जब्त करने का प्रावधान होना भी अनिवार्य है। बिना कठोर कानून के भ्रष्टाचार रूपी राक्षस का खात्मा संभव नहीं है लेकिन यह तभी संभव है जब निचले तबके के लोग उठकर आगे आएंगे क्योंकि मौजूदा सत्तासीन लोग कठोर कानूनी कार्रवाई के पक्षधर कभी नहीं होंगे, क्योंकि वे जानते हैं कि अगर परिर्वतन की लहर उठी तो उसमें सबसे पहले वो खुद ही बह जाएंगे। 

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