रविवार, 31 अगस्त 2014

पौधों और कीटों के बीच है गहरा संबंध

पौधे अपनी जरूरत के अनुसार बुलाते हैं कीटों को 

नरेंद्र कुंडू 
जींद। कीटाचार्या नीता तथा सविता ने कहा कि कीट दो प्रकार के होते हैं, एक शाकाहारी और दूसरे मांसाहारी। फसल में पहले शाकाहारी कीट आते हैं और फिर उन्हें नियंत्रित करने के लिए मांसाहारी कीट आते हैं। पौधों और कीटों का गहरा संबंध है। पौधे अपनी जरूरत के अनुसार कीटों को बुलाते हैं। इसलिए पौधों और कीटों के आपसी संबंध को बारीकी से समझना जरूरी है। कीटाचार्या नीता तथा सविता शनिवार को निडाना गांव में चलाई जा रही महिला किसान खेत पाठशाला में महिला किसानों को सम्बोधित कर रही थी। इस अवसर पर खेल गांव निडानी के सरपंच अशोक कुमार ने बतौर मुख्यातिथि शिरकत की तथा महाबीर पूनिया भी विशेष रूप से मौजूद थे। सरपंच अशोक कुमार ने महिलाओं के कार्य के प्रयासों की सराहना करते हुए महिलाओं को समय-समय पर हर तरह की संभव मदद देने का आश्वासन दिया। इस अवसर पर महिला किसानों ने सरपंच को स्मृति चिह्न भेंट कर सम्मानित किया। 
महिला किसानों के सामने अपने अनुभव सांझा करती मास्टर ट्रेनर किसान।
कीटाचार्या इश्वंती व नीलम ने कहा कि कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि पौधे 24 घंटे में लगभग साढ़े चार ग्राम भोजन तैयार करते हैं उसको तीन भागों में बांटे हैं। इसका एक तिहाई भाग जड़ों को, एक तिहाई पौधे के ऊपरी भाग को देते हैं तथा एक तिहाई अपने पास रिजर्व के तौर पर रखते हैं। ताकि मुसिबत के समय उस भोजन से अपना काम चला सकें। यदि पौधे पर किसी तरह की मुसिबत नहीं आती है तो पौधो उस जमा किये गए अतिरिक्त भोजन को निकालने के लिए भिन्न-भिन्न किस्म की सुगंध छोड़कर शाकाहारी कीटों को बुलाते हैं और यह शाकाहारी कीट रस आदि चूसकर रिजर्व भोजन को बाहर निकालकर एक तरह से पौधों की मदद करते हैं। जब तक यह शाकाहारी कीट ईटीएल लेवल तक रहते हैं तो पौधे को किसी तरह का नुकसान नहीं होता। यदि यह ईटीएल लेवल से ऊपर निकलते हैं तो पौधे पर इसका नुकसान आता है लेकिन शाकाहारी कीटों को नुकसान पहुंचाने के आर्थिक स्तर तक पहुंचने से रोकने के लिए पौधे मांसाहारी कीटों को बुलाते हैं। मांसाहारी कीट शाकाहारी कीटों को खाकर पौधों की सुरक्षा करते हैं। उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि जब पौधे के ऊपरी पत्तों की छाया नीचे के पत्तों पर पड़ती है तो नीचे के पत्ते भोजन बनाना बंद कर देते हैं। ऐसे में पौधो अपनी सुरक्षा के लिए टिड्डों को बुलाता है और टिड्डे पौधे के ऊपरी पत्तों को बीच से खाकर छोटे-छोटे सुराग कर देते हैं। इस प्रक्रिया में टिड्डों का जीवन यापन हो जाता है और पौधे के नीचले हिस्सों तक धूप पहुंच जाती है। इसके बाद जब पौधे के टिंड्डों को धूप की जरूरत होती है तो वह सूंडियों को बुलाता है और सूंंडियां पत्तों को खाकर पूरी तरह से छलनी कर देती है। इससे टिंड्डों तक धूप पहुंच जाती है और टिंड्डे पक जाते हैं। कीटाचार्या नवीन तथा शकुंतला ने बताया कि पौधे के फूलों के रूप में सिंगार करते हैं। इसलिए फूल की पंखुडियां रंग-बिरंगी होती हैं ताकि कीटों को आकर्षित किया जा सके। क्योंकि कपास की फसल में परपरागन में कीटों की अहम भूमिका होती हैं। फूल खाने वाले कीट मादा भाग पर बैठकर फूल की पंखुडियों व नर भाग को खाते हैं और इस प्रक्रिया में कीट के शरीर पर नर के पराग कण मादा तक पहुंच जाते हैं। उन्होंने कहा कि प्रकृति ने जो भी कीट बनाया है उसकी अपनी अहमियत होती है। 
सरपंच अशोक कुमार को स्मृति चिह्न भेंट करती महिला किसान।

कीटनाशक के छिड़काव वाले प्लांट में बढ़ी कीटों की संख्या

महिला किसानों द्वारा फसल के अवलोकन के दौरान एकत्रित किये गए आंकड़े के अनुसार आईपीएम पद्धति वाले प्लांट में सफेद मक्खी की संख्या प्रति पत्ता 5.2, हरे तेले की 0.1 व चूरड़े की 0.1 थी। कीट ज्ञान की पद्धति वाले प्लांट में सफेद मक्खी की 2.2, हरा तेला  व चूरड़ा न के बराबर थे। वहीं जिस प्लांट में कीटनाशकों का चार-चार बार छिड़काव किया गया है उस खेत में सफेद मक्खी की संख्या प्रति पत्ता 25 मिल रही है, जबकि हरा तेला 0.7 तथा चूरड़ा न के बराबर है। कीटाचार्या महिला किसानों ने बताया कि कीटनाशक के छिड़काव वाले प्लांट में कपास के सभी पत्ते पूरी तरह से काले हो चुके हैं और इस प्लांट में 65 प्रतिशत नुकसान नजर आ रहा है। 



फसल में मौजूद शाकाहारी कीट झोटिया बग। 

फसल में मौजूद रसचूसक कीट लालड़ी। 






शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

म्हारे किसानों के कीट ज्ञान के कायल हुए कृषि वैज्ञानिक

कानूपर में आयोजित दो दिवसीय प्रशिक्षण शिविर में किसानों ने प्रस्तुत की प्रजंटेशन
कहा, बिना कीटों की पहचान के नहीं संभव होगा थाली को जहरमुक्त करना

नरेंद्र कुंडू 
जींद। राष्ट्रीय समेकित नाशी जीव प्रबंधन केंद्र नई दिल्ली (एनसीआईपीएम) द्वारा कानपूर (उत्तरप्रदेश) में आयोजित दो दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम में म्हारे किसानों का कीट ज्ञान देखकर कार्यक्रम में मौजूद सभी कृषि वैज्ञानिक उनके कायल हो गये। कार्यक्रम में नार्थ जोन के सब्जेक्ट मेटर स्पेशलिस्ट (विषय वस्तु विशेषज्ञों) के अलावा कई प्रगतिशील किसानों ने भी भाग लिया। कार्यक्रम में जींद जिले के कीटाचार्य किसानों की तरफ से मास्टर ट्रेनर किसान रणबीर मलिक व सुरेश अहलावत प्रतिनिधि के तौर पर शामिल हुए। रणबीर मलिक ने कृषि अधिकारियों के साथ अपने अनुभव सांझा करते हुए बताया कि किस तरह से फसलों में कीटनाशकों के प्रयोग की शुरूआत हुई और अब किसानों के सामने क्या स्थिति है तथा वह किस तरह से किसानों को प्रशिक्षित कर रहे हैं। कीटाचार्य किसानों की कीट ज्ञान की पद्धति को देखकर कार्यक्रम में मौजूद सभी कृषि अधिकारियों ने उनकी पीठ थपथपाई और उन्हें एक तरह से इस कार्यक्रम का हीरो बताया।  
एनसीआईपीएम द्वारा 26 व 27 अगस्त को नार्थ जोन के कृषि वैज्ञानिकों के लिए कानपूर में दो दिवसीय प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम में जींद के कीटाचार्य किसानों को भी उनकी पद्धति के बारे में कृषि अधिकारियों को रूबरू करवाने के लिए बुलाया गया था। मास्टर ट्रेनर किसान रणबीर मलिक ने अपनी प्रस्तुति देते हुए बताया कि किसान और कीट के बीच यह लड़ाई 25 प्रतिशत के नुकसान से शुरू हुई थी। किसानों को बताया गया था कि कीट फसल में 25 प्रतिशत नुकसान करता है और इस नुकसान को बचाने के लिए किसान को कीटों को नियंत्रित करना होगा लेकिन जब कई वर्षों की मेहनत के बाद भी कीट नियंत्रित नहीं हुए तो कृषि अधिकारियों ने किसान को इसका जिम्मेदार बताते हुए इस लड़ाई का नाम बदलकर कीट प्रबंधन रख दिया। वर्ष 2001 में यह प्रबंध उस समय टूट गया जब 30-35 बार कीटनाशकों का छिड़काव करने के बाद भी अमेरिकन सूंडी का प्रबंध नहीं हो पाया। मलिक ने बताया कि अब इस लड़ाई का नाम बदलकर समेकीत कीट प्रबंधन किया गया है और हर तरह से कीट को काबू करने का प्रयास किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि जब तक किसान को कीटों की पहचान नहीं होगी उनके क्रियाकलापों के बारे में जानकारी नहीं होगी तब तक यह लड़ाई खत्म होने वाली नहीं है। पौधे के लिए कीट बेहद जरूरी हैं और पौधा अपनी जरूरत के हिसाब से कीटों को बुलाता है। इस दौरान उन्होंने कृषि अधिकारियों को कई तरह के कीटों की सलाइड व वीडियो भी दिखाई। कार्यक्रम में मौजूद सभी कृषि अधिकारियों ने उनके कीट ज्ञान को देखकर उनकी जमकर प्रशंसा की। 

जींद के किसानों की प्रस्तुति काफी सरहानिय रही

जींद जिले के किसानों के प्रतिनिधि के तौर पर कार्यक्रम में पहुंचे मास्टर ट्रेनर रणबीर मलिक की प्रस्तुति काफी सरहानिय रही। इन किसानों द्वारा एक तरह से लीक से हटकर कार्य किया जा रहा है। यह पद्धति को पूरे देश में फैलाने की जरूरत है और इसी उद्देश्य से उन्हें यहां बुलाया गया था। 
डॉ. अजंता बिराह, वरिष्ठ वैज्ञानिक
एनसीआईपीएम, नई दिल्ली




नार्थ जोन के कृषि वैज्ञानिकों को कीट ज्ञान का पाठ पढ़ाएंगे म्हारे किसान

एनसीआईपीएम द्वारा उत्तरप्रदेश में आयोजित करवाया जाएगा दो दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम
26 से शुरू होने वाले प्रशिक्षण कार्यक्रम में नार्थ जॉन के सब्जेक्ट मेटर स्पेशलिस्ट कृषि वैज्ञानिक लेंगे भाग 

नरेंद्र कुंडू
जींद। थाली को जहरमुक्त करने के लिए जींद जिले से शुरू हुई कीट ज्ञान क्रांति की मुहिम को देशभर में फैलाने के लिए राष्ट्रीय समेकित नाशी जीव प्रबंधन केंद्र नई दिल्ली (एनसीआईपीएम) द्वारा कानपूर (उत्तरप्रदेश) में दो दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन किया जाएगा। 26 अगस्त से शुरू होने वाले इस दो दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम में कृषि विभाग के नार्थ जोन के सब्जेक्ट मेटर स्पेशलिस्ट (विषय वस्तु विशेषज्ञ) भाग लेंगे। इस दो दिवसीय कार्यक्रम में जींद जिले के कीटाचार्य किसान कृषि वैज्ञानिकों को कीट ज्ञान की तालीम देंगे और कृषि वैज्ञानिकों के साथ अपने अनुभव सांझा करेंगे। ताकि देश के अन्य किसानों को भी इस मुहिम से जोड़ा जा सके। शिविर की अध्यक्षता एनसीआईपीएम के प्रधान वैज्ञानिक डॉ. मुकेश सहगल तथा वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. अजनता बिराह करेंगी। 
फसलों में बढ़ते कीटनाशकों के प्रयोग के कारण दूषित हो रहे खान-पान तथा वातावरण को बचाने के लिए जींद जिले के किसानों द्वारा वर्ष 2008 में कीट साक्षरता के अग्रदूत डॉ. सुरेंद्र दलाल के नेतृत्व में कीट ज्ञान क्रांति की शुरूआत की गई थी। यहां के किसानों ने फसलों में पाए जाने वाले कीटों की पहचान करने के साथ-साथ कीटों के क्रियाकलापों से फसल में पडऩे वाले प्रभाव पर बारीकी से शोध किया। शोध में सामने आया कि कीट दो प्रकार के होते हैं एक मांसाहारी और एक शाकाहारी। शाकाहारी कीट फसलों के पत्ते, टहनियां, फल, फूल खाकर अपना गुजारा करते हैं और मांसाहारी कीट दूसरे कीटों को खाकर अपना जीवन यापन करते हैं। इस दौरान किसानों ने देखा कि जब फसल में शाकाहारी कीटों की संख्या बढऩे लगती है तो उन्हें नियंत्रित करने के लिए पौधे भिन्न-भिन्न किस्म की सुगंध छोड़कर मांसाहारी कीटों को बुला लेते हैं। बशर्त यह है कि फसल में किसी प्रकार के कीटनाशकों का प्रयोग नहीं किया गया हो। इस प्रकार प्राकृतिक के इस चेन सिस्टम में मांसाहारी कीट शाकाहारी कीटों को खाकर फसल में प्राकृतिक कीटनाशी का काम खुद ही कर देते हैं। इस शोध के बाद यहां के किसानों ने खेत पाठशालाओं का आयोजन कर दूसरे किसानों को भी जागरूक करने का काम किया। पिछले लगभग 6-7 वर्षों से यहां के सैंकड़ों किसान बिना कीटनाशकों के खेती कर रहे है। इसकी सबसे खास बात यह है कि कीटनाशकों का प्रयोग नहीं करने पर भी उनके उत्पादन पर किसी तरह का प्रतिकूल प्रभाव भी नहीं पड़ा है बल्कि खेती पर उनका खर्च कम ही हुआ है। पुरुष किसानों के साथ-साथ महिला किसान भी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं। जींद जिले के किसानों की इस मुहिम को देखते हुए एनसीआईपीएम की टीम द्वारा इस बार जींद में कीट ज्ञान की इस पद्धति पर शोध किया जा रहा है। इसी कड़ी के तहत एनसीआईपीएम द्वारा कृषि वैज्ञानिकों को कीट ज्ञान के बारे में प्रशिक्षित करने के लिए कानपूर (उत्तरप्रदेश) में 26 व 27 अगस्त को दो दिवसीय प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया जा रहा है। इस प्रशिक्षण शिविर में कृषि विभाग के नार्थ जोन के सब्जेक्ट मेटर स्पेशलिस्ट वैज्ञानिक भाग लेंगे। इन कृषि वैज्ञानिकों को प्रशिक्षण देने के लिए शिविर में एनसीआईपीएम की टीम द्वारा जींद जिले के किसानों को मास्टर ट्रेनर के तौर पर बुलाया गया है। शिविर में प्रशिक्षण देेने के लिए जींद जिले से दो किसान 25 अगस्त को यहां से रवाना होंगे और शिविर में कृषि वैज्ञानिकों के साथ अपने अनुभव सांझा करेंगे। 

ईटीएल लेवल को पार करना तो दूर इसके पास भी नहीं पहुंच पाये कपास के मेजर कीट

कीट ज्ञान की मदद से कपास के मेजर कीटों के प्रकोप को कम कर रहे कीटाचार्य किसान
प्रदेश में कपास की फसल में तेजी से बढ़ रहा है सफेद मक्खी का प्रकोप 

नरेंद्र कुंडू 
जींद। कीटाचार्या प्रमिला रधाना ने बताया कि जहां-जहां पर भी सफेद मक्खी को नियंत्रित करने के लिए किसानों ने कीटनाशकों का प्रयोग किया है, वहां-वहां पर इसके भयंकर परिणाम सामने आ रहे हैं। कई क्षेत्रों में तो सफेद मक्खी के प्रकोप से कपास की फसल बिल्कुल खत्म होने की कगार पर है। हालात ऐसे हो चुके हैं कि सफेद मक्खी का नाम सुनते ही किसानों के पैरों तले से जमीन खिसक रही है लेकिन जहां पर सफेद मक्खी को नियंत्रित करने के लिए किसी कीटनाशक का प्रयोग नहीं किया गया, वहां पर हालात पूरी तरह से सामान्य हैं। इसका जीता जागता प्रमाण निडाना तथा आस-पास के गांवों में देखा जा सकता है। वह शनिवार को निडाना गांव में चलाई जा रही महिला किसान खेत पाठशाला में महिलाओं के साथ विचार सांझा कर रही थी। 
कपास की फसल में कीटों का अवलोकन करती महिला किसान।
कीटाचार्या मुकेश रधाना ने बताया कि फसल की बिजाई के बाद से लगातार महिला किसान खेत पाठशालाओं में यहां की महिला किसान कपास के मेजर कीट माने जाने वाले सफेद मक्खी, हरा तेला व चूरड़े की हर सप्ताह गिनती कर उनका रिकार्ड तैयार कर रहे हैं। रिकार्ड के अनुसार आज तक तीनों मेजर कीटों में से एक कीट भी ईटीएल लेवल को पार करना तो दूर की बात इसके पास भी नहीं पहुंच पाया है। ऐसा इसलिए संभव हो पाया है कि यहां के किसानों ने इन कीटों को नियंत्रित करने के लिए एक छांटक भी कीटनाशक का प्रयोग नहीं किया है। क्योंकि इन मेजर कीटों को नियंत्रित करने के लिए फसल में काफी संख्या में मांसाहारी कीटों के तौर पर प्राकृतिक कीटनाशी मौजूद रहते हैं। उन्होंने बताया कि प्रति पत्ता सफेद मक्खी की औसत 3.2, हरे तेले की औसत 0.6 तथा चूराड़े की औसत 0.11 है। जबकि ईटीएल लेवल के अनुसार सफेद मक्खी की औसत प्रति पत्ता 6, हरे तेले की प्रति पत्ता 2 तथा चूरड़े की प्रति पत्ता 10 होनी चाहिये लेकिन यह कीट आज तक इस ईटीएल लेवल तक नहीं पहुंच पाये हैं। 
कपास की फसल में कीटों का अवलोकन करती महिला किसान।

इस समय एक पौधे पर तैयार है लगभग 212 ग्राम कपास 

कीटाचार्या मुकेश रधाना तथा गीता निडाना ने बताया कि इस समय कपास के इस आधा एकड़ में टिंड्डों की औसत प्रति पौधा 53, फूल की 4 और बोकी की संख्या प्रति पौधा 30 है। अगर प्रत्येक टिंड्डे से हमें लगभग चार ग्राम कपास का फाव्वा भी मिलता है तो इस समय एक पौधे पर लगभग 212 ग्राम कपास तैयार है। इस आधा एकड़ में पौधों की संख्या लगभग 2500 है। इस प्रकार यदि हम इसका आकलन निकालते हैं तो इस समय इस आधा एकड़ कपास के खेत में लगभग पांच क्विंटल कपास की औसत बनती है। इसके बाद बोकी और फूल अलग से बचते हैं। एक बोकी से फूल बनने में 10-12 दिन का समय लगता है और फूल से टिंड्डा बनने में एक से दो दिन का समय लगता है। इस प्रकार इस पांच क्विंटल के अलावा ओर कपास तैयार होनी अभी बाकी है। उन्होंने बताया कि इस समय इस आधा एकड़ में मौजूद कपास की फसल में किसी प्रकार की बीमारी या किसी कीट का प्रकोप नहीं है और यह खेत में अभी तक कीटनाशकों पर खर्च बिल्कुल नहीं किया गया है। 



कपास की फसल में मौजूद मांसाहारी मकड़ी। 

 कपास की फसल में मौजूद सूंडी व शाकाहारी कीट बग। 





मंगलवार, 19 अगस्त 2014

किसानों के लिए प्रेरणा स्त्रोत बना ईगराह का मनबीर रेढ़ू

पिछले 6 वर्षों से बिना कीटनाशक के कर रहा है खेती
पहले उत्पादन का 40 प्रतिशत हिस्सा हो जाता था कीटनाशकों पर खर्च 

नरेंद्र कुंडू
जींद। आज अधिक उत्पादन की चाह में किसान फसलों में अंधाधुंध कीटनाशकों का प्रयोग कर रहे हैं। फसलों में अधिक कीटनाशकों के प्रयोग के कारण खेती में खर्च लगातार बढ़ रहा है, वहीं हमारा खान-पान व वातावरण भी दूषित हो रहा है। अधिक उत्पादन के मोह में फंसे किसानों को कीटनाशकों के अलावा कोई अन्य विकल्प नजर नहीं आ रहा है लेकिन जींद जिले के ईगराह गांव के प्रगतिशील किसान मनबीर रेढ़ू ने कीट ज्ञान की पद्धति को अपनाकर खेती पर बढ़ते अपने खर्च को तो कम किया ही है साथ-साथ अपने परिवार को थाली में बढ़ रहे जहर से भी मुक्ति दिलवाई है। मनबीर रेढ़ू आज दूसरे किसानों के लिए प्रेरणा स्त्रोत बन चुका है। मनबीर की उपलब्धियों को देखते हुए जींद जिला प्रशासन के अलावा गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भी मनबीर को सम्मानित किया जा चुका है।
मनबीर रेढ़ू को गुजरात सरकार के मंत्री।
मनबीर रेढ़ू का कहना है कि पहले वह अधिक उत्पादन की चाह में फसलों में अंधाधुंध कीटनाशकों का प्रयोग करता था। इससे हर वर्ष उसकी फसल की बिक्री का चौथा हिस्सा कीटनाशकों पर खर्च हो जाता था लेकिन वर्ष 2006 में उसने कृषि विभाग द्वारा गांव में लगी किसान खेत पाठशाला में हिस्सा लिया। इस पाठशाला से कीटनाशकों के प्रति उसकी मानसिकता में थोड़ा परिवर्तन जरूर हुआ लेकिन फसल में आने वाले कीटों के क्रियाकलापों के बारे में उसे पूरी जानकारी नहीं होने के कारण वह कीटनाशकों के प्रयोग को छोडऩे के लिए दिल से दृढ़ निश्चय नहीं ले पा रहा था। इसके बाद वर्ष 2007 में कृषि विभाग के एडीओ डॉ. सुरेंद्र दलाल से उसकी मुलाकात हुई। डॉ. सुरेंद्र दलाल ने उसकी समस्या का हल निकालते हुए उसे कीट ज्ञान लेने के लिए प्रेरित किया। वर्ष 2008 में डॉ. सुरेंद्र दलाल के नेतृत्व में कृषि विभाग की तरफ से निडाना गांव में शुरू की गई किसान खेत पाठशाला में मनबीर रेढ़ू ने हिस्सा लिया और यहां से उसे कीटों की पहचान करनी शुरू की। जैसे-जैसे कीटों के बारे में उसकी जानकारी बढ़ती गई, वैसे-वैसे कीटनाशकों के प्रति उसकी मानसिकता भी बदलती चली गई। इसके बाद उसने कीटनाशकों से तौबा कर ली और फिर कभी उसने फसल में एक छंटाक जहर का भी प्रयोग नहीं किया। उसने दूसरे किसानों को भी जागरूक करने के लिए किसान खेत पाठशालाओं में जाना शुरू कर दिया। किसान खेत पाठशालाओं में रेढ़ू अपने साथियों के साथ मिलकर दूसरे किसानों को भी कीटों के बारे में बारीकी से जानकारी देता। रेढ़ू की उपलब्ध्यिों को देखते हुए वर्ष 2010 में कृषि विभाग की तरफ से मनबीर रेढ़ू को ब्लॉक स्तर पर पुरस्कृत भी किया गया। इसके बाद वर्ष 2012 में भी जाट धर्मार्थ सभा द्वारा भी जिला स्तर पर मनबीर रेढ़ू व उसके साथियों को पुरस्कृत किया। वहीं सितंबर 2013 में गुजरात में वाइब्रेट गुजरात के नाम से आयोजित राष्ट्रस्तरीय कार्यक्रम में भी तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा मनबीर रेढ़ू को प्रगतिशील
मनबीर रेढ़ू का फोटो। 
किसान के तौर पर सम्मानित किया जा चुका है। रेढ़ू का कहना है कि वह खेती में नई-नई तकनीकों में विश्वास रखता है और हर तरह की तकनीक को खेती में प्रयोग कर के देखता है लेकिन कीट ज्ञान हासिल करने के बाद वह आंदरूनी तौर पर संतुष्ट है। वर्ष 2008 के बाद से उसने अपने खेतों में एक छंटाक जहर का प्रयोग भी नहीं किया है। मनबीर का कहना है कि जब तक वह फसलों में कीटनाशकों का प्रयोग करता था तो हर वर्ष उसकी आमदनी का चौथा हिस्सा कीटनाशकों पर खर्च हो जाता था लेकिन जब से उसने कीटनाशकों का प्रयोग बंद किया है, उसका खेती पर होने वाला यह खर्च बिल्कुल कम हो गया है। वहीं कीटनाशकों का प्रयोग बंद करने के बाद उसकी थाली से भी जहर कम हो गया है। इससे स्वास्थ्य पर होने वाले उसके खर्च में भी काफी कमी आई है। इतना ही नहीं मनबीर रेढ़ू पशुपालन में भी काफी महारत हासिल कर चुका है।

गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ हरियाणवी वेशभूषा में खड़ा मनबीर रेढ़ू।  



बेवजह सफेद मक्खी से भयभीत हो रहे हैं किसान

छेडख़ानी करने से बढ़ती है कीटों की संख्या
सफेद मक्खी को नियंत्रित करने के लिए फसल में काफी संख्या में मौजूद होते हैं कुदरती कीटनाशी

नरेंद्र कुंडू 
जींद। कृषि विकास अधिकारी डॉ. कमल सैनी ने कहा कि जिन-जिन खेतों में कपास की फसल में कीटों को नियंत्रित करने के लिए कीटनाशकों का प्रयोग कर छेडख़ानी की गई है, उन-उन खेतों में कीटों की संख्या निरंतर बढ़ रही है लेकिन जहां पर कीटों के साथ कोई छेडख़ानी नहीं की गई है, वहां कीटों की संख्या नुकसान पहुंचाने के आर्थिक स्तर (ईटीएल लेवल) से काफी नीचे है। डॉ. सैनी शनिवार को निडाना गांव में आयोजित महिला किसान खेत पाठशाला में कीटाचार्य किसानों से बातचीत कर रहे थे। पाठशाला के आरंभ में महिला किसानों ने कपास की फसल में कीटों का निरक्षण किया और उसके बाद फसल में मौजूद कीटों के आंकड़े को चार्ट पर उतारा। 
कपास की फसल में कीटों का अवलोकन करती महिला किसान।
डॉ. सैनी ने बताया कि आज पूरे प्रदेश में सफेद मक्खी नामक रस चूसक कीट ने किसानों के मन में भय पैदा कर दिया है। इसलिए अज्ञानतावश किसान सफेद मक्खी को नियंत्रित करने के लिए लगातार कीटनाशकों का प्रयोग कर रहे हैं। भिरड़-ततैये ग्रुप की मास्टर ट्रेनर महिला सुषमा, जसबीर कौर ने बताया कि सफेद मक्खी के पेशाब में शुगर बहुत ज्यादा होती है। जिस भी पत्ते पर सफेद मक्खी का पेशाब पड़ता है, वह पत्ता काला पड़ जाता है। उन्होंने बताया कि सफेद मक्खी एक ऐसा कीट है जो 600 से भी ज्यादा पौधों पर आती है। इसके बच्चे पानी की बूंद की तरह दिखाई देते हैं और वह पत्ते पर एक जगह पड़े-पड़े ही रस चूसते रहते हैं। यदि मौसम अनुकूल हो तो सफेद मक्खी के अंडे से तीन-चार दिन में बच्चा निकल आता है यदि मौसम अनुकूल नहीं हो तो अंडे से बच्चा निकलने में 15 से 20 दिन भी लग जाते हैं। उन्होंने बताया कि कीटों की सबसे खास बात यह होती है कि यदि कीट को यह अहसास हो जाता है कि उस पर हमला होने वाला है तो वह अपने जीवन को छोटा करके अपने बच्चे पैदा करने कर क्षमता को बढ़ा लेता है। सफेद मक्खी एक ऐसा कीट है जो बिना नर के भी अंडे दे देती है। सुमन, कमल व संतोष ने बताया कि फसल में सफेद मक्खी का प्रकोप होने पर पत्ते के नीचे की नसें फुल जाती हैं और पत्ते का रंग गहरा हरा हो जाता है। पत्ता प्रकोपित होकर ऊपर की तरफ कटोरे की भांति मुडऩे लग जाता है। उन्होंने बताया कि यह कीट मरोडिय़ा नामक वायरस को फैलाने में सहायक है। जब सफेद मक्खी एक पत्ते से रस चूकर दूसरे पत्ते पर रस चूसने के लिए जाती है तो उसके थूक के माध्यम से मरोडिय़े का वायरस दूसरे पौधे तक पहुंच जाता है। जब फसल में मरोडिय़ा बढ़ जाता है तो पौधा प्रकोपित पत्ते के नीचे एक ओर नया पत्ता निकाल लेता है। क्योंकि पौधे को पता होता है कि मुड़ा हुआ पत्ता अब भोजन नहीं बना पाएगा। इसलिए वह भोजन बनाने के लिए नया पत्ता निकाल लेता है। 
कपास की फसल में कीटों का अवलोकन करती महिला किसान।

सफेद मक्खी की कुदरती कीटनाशी

मास्टर ट्रेनर महिला किसानों ने बताया कि सफेद मक्खी को नियंत्रित करने के लिए किसी बाजार से खरीदे गए कीटनाशक की जरूरत नहीं पड़ती। बल्कि फसल में सफेद मक्खी के कुदरती कीटनाशी काफी संख्या में मिल जाते हैं। लेडी बर्ड बीटल, लोपा मक्खी, छैल मक्खी, परजीवी इनो, इरो, परभक्षी क्राइसोपे के बच्चे तथा भांत-भांत की मकडिय़ां सफेद मक्खी को खाकर कुदरती कीटनाशी का काम करती हैं। बस जरूरत है किसान को इन कीटों की पहचान करने की। 

पौधे को पर्याप्त खुराक देकर ही पाया जा सकता है मरोडिय़े से पार  

डॉ. कमल सैनी ने बताया कि मरोडिय़े विषाणु से फैलता है और विषाणु न तो जीवित होता है और न ही कभी मरता है। इस विषाणु को अनुकूल मौसम मिलने पर यह जीवित हो जाता है। इस विषाणु के प्रभाव को रोकने के लिए आज तक कोई दवाई नहीं बनी है। यदि हम मरोडिय़े से प्रकोपित पौधे को काट कर जला भी देते हैं तो भी उसकी जड़ों में यह वायरस बच जाता है। इससे पार पाने का केवल एक ही उपाय है कि हम मरोडिय़े से प्रकोपित फसल में जिंक, यूरिया व डीएपी के घाल का फोलियर स्प्रे करते रहें। इससे पौधे को पर्याप्त खुराक मिलती रहेगी और इससे उत्पादन में भी कोई कमी नहीं आएगी। 


महिला किसानों को चार्ट पर कीटों के बारे में जानकारी देती मास्टर ट्रेनर महिला किसान। 




मंगलवार, 12 अगस्त 2014

कीट साक्षारता के जनक डॉ. सुरेंद्र दलाल के नाम से शुरू होगा राज्य स्तरीय पुरस्कार

हरियाणा किसान आयोग देगा पुरस्कार

हर वर्ष कृषि क्षेत्र में बेहतर काम करने वाले कृषि विभाग के एडीओ को दिया जाएगा पुरस्कार

डॉ. सुरेंद्र दलाल को मरणोपरांत मिलेगा यह पुरस्कार


कीट साक्षरता के अग्रदूत डॉ. सुरेंद्र दलाल का फोटो।
नरेंद्र कुंडू
जींद। खाने की थाली को जहरमुक्त बनाने के लिए जींद जिले से कीट ज्ञान क्रांति के जन्मदाता डॉ. सुरेंद्र दलाल को हरियाणा किसान आयोग ने विशेष सम्मान देने का निर्णय लिया है। हरियाणा किसान आयोग द्वारा डॉ. सुरेंद्र दलाल के नाम से राज्य स्तर पर विशेष पुरस्कार शुरू किया जा रहा है। आयोग द्वारा एक नवंबर को हरियाणा दिवस पर आयोजित राज्य स्तरीय समारोह में कृषि क्षेत्र में विशेष कार्य करने वाले कृषि विभाग के एडीओ को यह पुरस्कार दिया जाएगा। कृषि क्षेत्र में डॉ. सुरेंद्र दलाल के अथक योगदान को देखते हुए आयोग ने यह पुरस्कार देने का निर्णय लिया है। इसकी शुरूआत खुद डॉ. सुरेंद्र दलाल से ही की जाएगी। आयोग द्वारा डॉ. दलाल को मरणोपरांत इस पुरस्कार से नवाजा जाएगा।
फसलों में अंधाधुंध प्रयोग किये जा रहे पेस्टीसाइड के कारण दूषित हो रहे खान-पान तथा वातावरण को बचाने के लिए जींद कृषि विभाग में एडीओ के पद पर कार्यरत डॉ. सुरेंद्र दलाल ने वर्ष 2008 में जींद जिले से कीट ज्ञान की क्रांति की शुरूआत की थी। डॉ. सुरेंद्र दलाल ने आस-पास के गांवों के किसानों को कीट ज्ञान का प्रशिक्षण देने के लिए निडाना गांव में किसान खेत पाठशालाओं की शुरूआत की थी। डॉ. दलाल किसानों को प्रेरित करते हुए अकसर इस बात का जिक्र किया करते थे कि किसान जागरूकता के अभाव में अंधाधुंध कीटनाशकों का प्रयोग कर रहे हैं। जबकि कीटों को नियंत्रित करने के लिए कीटनाशकों की जरूरत है ही नहीं, क्योंकि फसल में मौजूद मांसाहारी कीट खुद ही कुदरती कीटनाशी का काम करते हैं। मांसाहारी कीट शाकाहारी कीटों को खाकर नियंत्रित कर लेते हैं। डॉ. दलाल ने किसानों को जागरूक करने के लिए फसल में मौजूद शाकाहारी तथा मांसाहारी कीटों की पहचान करना तथा उनके क्रियाकलापों से फसल पर पडऩे वाले प्रभाव के बारे में बारीकी से जानकारी दी। पुरुष किसानों के साथ-साथ डॉ. दलाल ने वर्ष 2010 में महिला किसान खेत पाठशाला की भी शुरूआत की और महिलाओं को भी कीट ज्ञान की तालीम दी। यह इसी का परिणाम है कि आज जींद जिले में कीटनाशकों की खपत लगभग 50 प्रतिशत कम हो चुकी है और यहां के किसान धीरे-धीरे जागरूक होकर जहरमुक्त खेती की तरफ अपने कदम बढ़ा रहे हैं। आज यहां की महिलाएं भी पुरुष किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कीट ज्ञान की इस मुहिम को आगे बढ़ा रही हैं। दुर्भाग्यवश वर्ष 2013 में एक गंभीर बीमारी के कारण डॉ. सुरेंद्र दलाल का देहांत हो गया था। इससे उनकी इस मुहिम को बड़ा झटका लगा था लेकिन उनके देहांत के बाद भी यहां के किसान उनकी इस मुहिम को बखुबी आगे बढ़ा रहे हैं। पुरुष तथा महिला किसानोंं को जागरूक कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाने तथा कृषि क्षेत्र में उनके अथक योगदान को देखते हुए हरियाणा किसान आयोग डॉ. सुरेंद्र दलाल के नाम से राज्य स्तरीय पुरस्कार शुरू करने जा रहा है। आयोग द्वारा हर वर्ष एक नवंबर को हरियाणा दिवस पर राज्य स्तरीय कार्यक्रम का आयोजन कर कृषि क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाले कृषि विभाग के एक एडीओ को यह पुरस्कार दिया जाएगा। आयोग द्वारा पुरस्कार के तौर पर एक प्रशस्ती पत्र और 50 हजार रुपये की राशि ईनाम स्वरूप दी जाएगी। ताकि इस मुहिम को पूरे देश में फैलाने के लिए कृषि विभाग के अन्य अधिकारियों को भी प्रेरित किया जा सके। हरियाणा किसान आयोग के चेयरमैन डॉ. आरएस प्रौधा ने हाल ही में प्रकाशित हुई आयोग की मैगजीन में इस पुरस्कार की घोषणा की है।



रविवार, 10 अगस्त 2014

जमा किये गये अतिरिक्त भोजन को बाहर निकालने के लिए कीटों को बुलाते हैं पौधे

कीट ज्ञान की मुहिम के प्रति बढ़ रहा स्कूली विद्यार्थियों का रूझान

नरेंद्र कुंडू
जींद।
निडाना गांव में चल रही कीट ज्ञान की मुहिम के प्रति स्कूली बच्चों में भी रूझान लगातार बढ़ रहा है। इसी के चलते शनिवार को निडाना गांव में चलाई जा रही महिला किसान खेत पाठशाला में हर बार अलग-अलग स्कूलों से बच्चे कीट ज्ञान सीखने के लिए पहुंच रहे हैं। शनिवार को खरकरामजी गांव स्थित निराकार ज्योति विद्या निकेतन स्कूल के  विधार्थियों ने पाठशाला में पहुंचकर कीटों के जीवन चक्र व क्रियाकलापों के बारे में बारीकी से जानकारी हासिल की। इस अवसर पर स्कूल के डायरेक्टर जसमेर बूरा भी विशेष रूप से मौजूद रहे। कीटों के प्रति महिलाओं के इतने स्टीक ज्ञान को देखकर जसमेर बूरा ने महिलाओं की जमकर प्रशंसा की।
पाठशाला में भाग लेने के लिए पहुंची छात्राएं।
बुगडिय़ा खाप की कीटाचार्या कमलेश, प्रमीला, विजय, बिमला व सुदेश ने विद्यार्थियों को पौधों पर मौजूद शाकाहारी तथा मांसाहारी कीटों के जीवनच्रक व क्रियाकलापों के बारे में विस्तार से जानकारी देते हुए बताया कि कीट फसल में किसान को नुकसान या फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से नहीं बल्कि वह अपना जीवन यापन करने के लिए आते हैं। पौधे समय-समय पर अपनी जरूरत के अनुसार भिन्न-भिन्न किस्म की सुगंध छोड़कर कीटों को अपनी सुरक्षा के लिए बुलाते हैं। पौधे के पास जब अतिरिक्त भोजन स्टॉक हो जाता है तो पौधे उस भोजन को बाहर निकालने के लिए कीटों को बुलाते हैं और इसी प्रक्रिया में कीटों को भी जीवन यापन करने का अवसर मिल जाता है। 
 पौधों पर कीटों के क्रियाकलापों के बारे में जानकारी लेती छात्राएं।

प्रकृति को चलाने में कीटों की अहम भूमिका

निराकार ज्योति विद्या निकेतन की छात्रा अंजलि, पूजा, ज्योति, अंजिका, खुशबू, खुशी, साहिल ने बताया कि अभी तक वह कीटों के  जीवन चक्र के बारे में केवल किताबों तक ही सीमित थे लेकिन महिला किसान खेत पाठशाला में उन्होंने इस ज्ञान को व्यवहारिक तौर पर भी देख लिया है। पाठशाला में पहुंचकर उन्होंने देखा कि किस तरह प्रकृति को चलाने में कीटों की अहम भूमिका होती है। छात्राओं ने बताया कि उन्होंने शाकाहारी कीटों को खाने वाले मांसाहारी कीट बीटल, हथजोड़ा,मकड़ी, खून चूसने वाले बुगड़े तथा मिलीबग के अंदर अंगीरा के बच्चे पलते देखे हैं। इसके साथ-साथ फसल में कहीं-कहीं चेपा भी नजर आया।

कीटनाशक प्रयोग करने वाले खेत में बड़ी शाकाहारी कीटों की संख्या

निडाना गांव के खेत में कीटनाशक रहित खेती तथा कीटनाशक वाली खेती पर चल रहे प्रयोग में एक नया आंकड़ा निकलकर आया है। खेत के मालिक जोगेंद्र ने बताया कि उसके खेत में आधा-आधा एकड़ में कपास पर शोध किया जा रहा है। आधा एकड़ में कीट ज्ञान की मुहिम से जुड़े किसानों की पद्धति के अनुसार खेती की जा रही, आधा एकड़ में आईपीएम की पद्धति के अनुसार खेती की जा रही है तथा आधा एकड़ में एक सामान्य किसान की पद्धति से खेती की जा रही है। किसान जोगेंद्र ने बताया कि सामान्य किसान वाली पद्धति वाले आधा एकड़ में उसने दो दिन पहले ही कीटनाशक का प्रयोग किया था। इससे उस खेत में दूसरे खेतों की अपेक्षा शाकाहारी कीटों की संख्या बढ़ी है।
सफेद मक्खी     हरा तेला    चूरड़ा        पद्धति का नाम
2.1                        0.4        1.4         कीटनाशक के प्रयोग के बाद
1.6                       0.6        1.2          कीटनाशक रहित पद्धति
1.8                       0.7        1.5          आईपीएम की पद्धति        

दूसरे जिले के किसानों में भी बढ़ा कीट ज्ञान के प्रति रुझान

जींद जिले में चल रही कीटनाशक रहित खेती की मुहिम के प्रति अब दूसरे जिलों के किसानों का भी रूझान बढ़ रहा है। शनिवार को निडाना गांव में चल रही पाठशाला में हिसार जिले के सोरखी गांव से पहुंचे प्रगतिशील किसान देवेंद्र व संदीप ने बताया कि वह भी समाचार पत्रों में इस मुहिम के बारे में जानकारी ले रहे हैं और उसी से इसके प्रति उनका रुझान बढ़ा है। इसलिए वह भी कीट ज्ञान लेने के लिए यहां पहुंचे हैं। देवेंद्र ने बताया कि उसने बीटैक की डिग्री की हुई है लेकिन नौकरी से ज्यादा उसका खेती के प्रति रूझान है। देवेंद्र व संदीप ने बताया कि उसके गांव में फसल में कीटनाशकों को बेइंताह प्रयोग किया जा रहा है। इसलिए वह भी अपने गांव के किसानों को जहरमुक्त खेती के लिए प्रेरित करने के लिए अपने गांव में भी इस मुहिम को चलाना चाहते हैं।

फसल में देखे गए कीटों का आंकड़ा दर्ज करवाती स्कली छात्रा।





बुधवार, 6 अगस्त 2014

भारतीय मूल्यों को संजोये हुए है कालवा गुरुकुल

योग गुरू स्वामी रामदेव व आचार्य बाल कृष्ण की कर्मस्थली रहा है कालवा गुरुकुल
वैदिक धर्म की शिक्षा का किया जा रहा प्रचार-प्रसार

नरेंद्र कुंडू
जींद। पिल्लूखेड़ा कस्बे में स्थित कालवा गुरुकुल आधुनिकता के इस दौर में भी वैदिक संस्कृति व भारतीय मूल्यों को संजोये हुए है। कालवा गुरुकुल में आज भी हमारी वैदिक संस्कृति की झलक देखने को मिलती है। आज भी यहां के ब्रह्मचारियों व आचार्यों की सुबह की शुरूआत हवन से होती है। हालांकि मोबाइल क्रांति के बाद से गुरुकुल के प्रति युवाओं का रूझान कम जरूर हुआ है लेकिन कालवा गुरुकुल में आज भी दूसरे प्रदेश के कई ब्रह्मचारी यहां शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। कालवा गुरुकुल योग गुरु बाबा रामदेव व बालकृष्ण की भी कर्म स्थली रही है। स्वामी रामदेव व बालकृष्ण ने भी कालवा गुरुकुल से ही अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी की है। कालवा गुरुकुल लोगों को वैदिक धर्म की शिक्षा देने के साथ-साथ स्वास्थ्य सुविधाएं भी उपलब्ध करवा रहा है। कालवा गुरुकुल के औषद्यालय में हर प्रकार की बीमारियों का उपचार देशी दवाओं से किया जाता है और सांप के काटे का उपचार तो बिल्कुल निशुल्क किया जाता है। 
कालवा गुरुकुल में हवन में आहुति देते ब्रह्मचारी व आचार्य।

1968 में हुई थी कालवा गुरुकुल की स्थापना

स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा 1875 में मुम्बई में आर्य समाज की स्थापना की गई थी। जून 1968 में स्वामी चंद्रवेश व स्वामी सत्यवेश ने कालवा में गुरुकुल की स्थापना की। गुरुकुल की स्थापना के दौरान यहां पर सिर्फ छोटे बच्चों को ही शिक्षा दी जाती थी। उस दौरान बड़े बच्चों के लिए यहां शिक्षा की व्यवस्था नहीं थी। 1971 में आचार्य बलदेव ने यहां पर स्टीक ब्रह्मचारी व वैदिक धर्म के प्रचारकों को शिक्षा देने का काम शुरू किया। श्रावणी पर्व 1971 में यहां पर बड़े ब्रह्मचारियों के पठन-पाठन का काम शुरू किया गया। 
कालवा गुरुकुल का फोटो।

स्वामी रामदेव व आचार्य बाल कृष्ण की कर्मस्थली रहा है गुरुकुल कालवा

कालवा गुरुकुल ने वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए देश को कई महान ब्रह्मचारी दिये हैं। योग गुरु स्वामी रामदेव व आचार्य बाल कृष्ण ने कालवा गुरुकुल से ही अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी की है। 1987 से 1992 तक स्वामी रामदेव व आचार्य बाल कृष्ण ने एक साथ कालवा गुरुकुल में रहकर यहां से वैदों की शिक्षा ग्रहण की। इसके अलावा आचार्य अर्जुन देव, आचार्य नरेश, आचार्य ज्ञानेश्वर, आचार्य अखिलेश, आचार्य जगतदेव, स्वामी धर्मदेव, आचार्य राजेंद्र, आचार्य आत्मप्रकाश, स्वामी सीमानंद ने भी कालवा गुरुकुल से ही वैदिक धर्म की शिक्षा दीक्षा ली और नैष्ठिक ब्रह्मचार्य का प्रचार-प्रचार किया। 
गुरुकुल में लाठी चलाने का प्रशिक्षण लेते प्रशिक्षु।

पहले ग्रामीण जीवन व गुरुकुल के जीवन में नहीं था कोई अंतर

आचार्य राजेंद्र ने बताया कि आज से लगभग 15-20 वर्ष पहले ग्रामीण जीवन व गुरुकुल के जीवन में कोई ज्यादा अंतर नहीं था। इसलिए गुरुकुल में शिक्षा-दीक्षा लेने के लिए आने वाले ब्रह्मचारी आसानी से गुुरुकुल के आचरण में ढल जाते थे लेकिन देश में मोबाइल क्रांति के बाद से काफी तेजी से परिवर्तन हुआ है। पहले गुरुकुल के ब्रह्मचारियों व भजनियों द्वारा गांव-गांव जाकर वैदिक धर्म का प्रचार-प्रसार किया जाता था। लोग बड़ी रुचि के साथ प्रवचन और भजन सुनते थे लेकिन ज्यों-ज्यों मनोरंजन के साधन बढ़ते गए वैसे-वैसे ही लोगों का गुरुकुल के प्रचार-प्रसार से मोह भंग होता चला गया। इसके चलते नैतिक मूल्यों से भरी शिक्षा का स्थान अशलील व दिशाहीन कार्यक्रमों ने ले लिया। स्वामी धर्मदेव का कहना है कि गुरुकुल का उद्देश्य वैदों की रक्षा करते हुए वैदिक धर्म का प्रचार-प्रसार करना और सामाजिक कुरीतियों को खत्म करना है।  

यह होती है गुरुकुल के ब्रह्मचारियों की दिनचर्या

गुरुकुल में रहने वाले सभी ब्रह्मचारी सुबह पौने चार बजे उठते हैं। शौच आदि से निवृत्ति होने के बाद ब्रह्मचारियों को व्यायाम, योगाभ्यास व प्राणायाम करवाया जाता है। इसके बाद ब्रह्मचारी स्नान इत्यादि करके 15-20 मिनट तक ऋषि ग्रंथों का स्वाध्याय करते हैं। पांच मिनट तक वेदपाठ होता है, इसी दौरान कुछ देर वेद मंत्रों पर चर्चा होती है और फिर हवन होता है। इसके बाद प्रार्थना होती है और फिर आठ बजे से सायं चार बजे तक विद्यालय चलता है। विद्यालय के दौरान 11 से 12.30 बजे भोजन व विश्राम का समय होता है। इसके बाद चार बजे तक फिर कक्षाएं चलती हैं। साढ़े चार बजे के बाद फिर से व्यायाम व प्राणायाम किया जाता है। सायं के समय हवन होता है और इसके बाद भोजन किया जाता है। 






जींद जिले से होगी अगली सुरक्षित हरित क्रांति की शुरूआत

किसानों के कीट ज्ञान की पद्धति को परखने के लिए जींद पहुंची एनसीआईपीएम की टीम

नरेंद्र कुंडू 
जींद। आज देश में प्रयोग हो रहे पेस्टीसाइड का 44 प्रतिशत हिस्सा अकेला कपास में प्रयोग हो रहा है। इसका कारण यह है कि किसानों को गुमराह कर कीटों के प्रति उनके मन में भय पैदा किया गया है लेकिन जींद जिले के किसानों ने कीट ज्ञान की एक अनोखी मुहिम शुरू की है। यहां के किसानों द्वारा पेस्टीसाइड बंद किये जाने का मुख्य कारण इन किसानों को ईटीएल लेवल की जानकारी होना है। इससे पहले फसल में कीटनाशकों के 
एनसीआईपीएम की टीम का स्वागत करती महिला किसान। 
प्रयोग की जरूरत नहीं होती। यह बात राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन केंद्र नई दिल्ली के प्रधान वैज्ञानिक डॉ. मुकेश सहगल ने मंगलवार को निडाना गांव के खेतों में आयोजित किसान खेत पाठशाला में किसानों को सम्बोधित करते हुए कही। इस अवसर पर उनके साथ वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. अजंता बिराह, डॉ. सोमेश्वर भगत, वैज्ञानिक डॉ. राकेश कुमार, प्रधान तकनीकी अधिकारी एसपी सिंह, उप-कृषि निदेशक डॉ. रामप्रताप सिहाग, एसडीओ डॉ. सिवाच, खंड कृषि अधिकारी डॉ. राजेंद्र शर्मा, डॉ. कमल सैनी, बराह तपा प्रधान कुलदीप ढांडा, मैडम कुसुम दलाल, दिल्ली दूरदर्शन, हिसार दूरदर्शन तथा आकाशवाणी रोहतक केंद्र की टीम भी मौजूद थी। 
डॉ. सहगल ने कहा कि अगली सुरक्षित हरित क्रांति की शुरूआत जींद जिले से ही होगी। जींद जिले के किसानों द्वारा कीटों पर किया जा रहे शोध एक अनोखी पद्धति है लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि आज तक इस पद्धति पर देश के वैज्ञानिकों की सरकारी मोहर नहीं लग पाई है। उन्होंने कहा कि कीट ज्ञान की इस पद्धति पर वैज्ञानिकों की मोहर लगवाने के लिए ही वह यहां आए हैं। उनकी इस पद्धति को परखने के लिए एनसीआईपीएम द्वारा इस बार निडाना गांव में तीन अलग-अलग प्लांट लगाए गए हैं। एक प्लांट में एनसीआईपीएम अपनी पद्धति के अनुसार से खेती करवाई जा रही है, एक प्लांट में किसान द्वारा खुद अपनी सामान्य पद्धति द्वारा खेती कर रहा है तथा एक प्लांट में कीट ज्ञान की मुहिम से जुड़े किसान अपनी पद्धति से खेती कर रहे हैं। यदि कीट ज्ञान की मुहिम से जुड़े किसानों की पद्धति से फसल का उत्पादन एनसीआईपीएम की पद्धति के बराबर भी आता है तो कीट ज्ञान की मुहिम की पद्धति को देशभर में लागू करने की सिफारिश की जाएगी। डॉ. अजंता बिराह ने कहा कि उनके द्वारा भी ट्राइकोडर्मा और स्यूडोमोनास के द्वारा कीटों का प्रबंधन करने के लिए किसानों को जागरूक किया जाता है लेकिन जींद जिले के किसानों ने तो उनकी पद्धति से भी अच्छी पद्धति ढूंढ़ निकाली है। उनके द्वारा इस पद्धति पर किया जा रहा शोध अगर सफल होता है तो वह इन 
 वैज्ञानिकों को कीटों के बारे में जानकारी देती महिला किसान।
किसानों की मदद से देश के अन्य किसानों को भी जागरूक करवाने के लिए योजना तैयार करेंगे। इस अवसर पर जींद जिले के अलावा बरवाला, हांसी, हिसार से भी काफी संख्या में किसानों ने कार्यक्रम में भाग लिया। 

महिलाओं का कीट ज्ञान देखकर दंग रह गई वैज्ञानिकों की टीम

कीटाचार्य महिला किसानों ने एनसीआईपीएम की टीम के वैज्ञानिकों को बताया कि वह केवल कीटों की पहचान कर कीटों के क्रियाकलापों के बारे में जानकारी हासिल करते हैं। वह इस दौरान यह देखते हैं कि कीटों ने फसल में ईटीएल लेवल को पार किया है या नहीं। यदि कीट ईटीएल लेवल को पार नहीं करते हैं तो फिर कीटनाशी का प्रयोग करने की कोई जरूरत नहीं है। उन्होंने बताया कि अपने ६ वर्षों के अनुभव के दौरान अभी तक न तो कीटों ने ईटीएल लेवल पार किया है और न ही उन्हें कीटनाशी का प्रयोग करने की जरूरत पड़ी है। महिला किसानों के कीट ज्ञान को देखकर वैज्ञानिकों की टीम दंग रह गई।



महिला किसानों के अनुभव को कैमरे में कैद करती दिल्ली दूरदर्शन की टीम। 




  


रविवार, 3 अगस्त 2014

कमलेश के मजबूत इरादे व सीखने के जुनून ने परिवार को दी नई दिशा

आठवीं पास कमलेश कीट ज्ञान में बड़े-बड़े कीट वैज्ञानिकों को दे रही है चुनौती

परिवार के विरोध के बाद भी नहीं मानी हार और साधारण ग्रहणी से बन गई कीटों की मास्टरनी

नरेंद्र कुंडू
जींद।
कहते हैं कि अगर मन में किसी काम को करने का जुनून पैदा हो जाए तो बड़ी से बड़ी बाधा भी उसका रास्ता नहीं रोक पाती। इस कहावत को सच साबित कर दिखाया है निडाना गांव की वीरांगना कमलेश ने। कमलेश चूल्हे-चौके के साथ-साथ खेती-बाड़ी के कामकाज में भी अपने पति जोगेंद्र का हाथ बंटवाती है। लगभग चार वर्ष पहले कमलेश को कीट साक्षरता के अग्रदूत डॉ. सुरेंद्र दलाल से जहरमुक्त खेती की ऐसी प्रेरणा मिली की उसने परिवार की
कमलेश का फोटो।
मर्जी के खिलाफ कीट ज्ञान हासिल करने के लिए गांव के ही खेतों में चल रही महिला किसान खेत पाठशाला में भाग लेना शुरू कर दिया। पति और परिवार की मर्जी के खिलाफ कीट ज्ञान हासिल करने वाली कमलेश को लगभग दो वर्षों तक परिवार के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा लेकिन उसने कभी हार नहीं मानी और यह कमलेश की मेहनत का ही परिणाम है कि महज आठवीं पास कमलेश को आज सैंकड़ों कीटों के नाम कंठस्थ हैं। कमलेश फसल में मौजूद कीट को देखते ही उसके पूरे जीवन चक्र तथा इस कीट का फसल पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसके बारे में भी पूरी जानकारी रखती है। कीट ज्ञान के मामले में तो आठवीं पास कमलेश बड़े-बड़े कीट वैज्ञानिकों को भी चुनौती दे रही है। जिस कमलेश को कभी परिवार वाले कीट ज्ञान हासिल करने से रोकते थे आज परिवार के वही सदस्य खुद कीट ज्ञान की तालीम लेने के लिए कमलेश के साथ किसान खेत पाठशाला में जाते हैं। आज कमलेश का पति जोगेंद्र कीट ज्ञान के प्रति इतना आकर्षित हो चुका है कि पिछले दो सालों से उसने अपनी किसी भी फसल में कीटनाशक का एक छटांक भी प्रयोग नहीं किया है। कीट ज्ञान हासिल कर कमलेश तथा उसका पति जोगेंद्र अब खुद भी जहरमुक्त खेती कर रहे हैं तथा दूसरे किसानों को भी इसके लिए प्रेरित कर रहे हैं।

कमलेश का ग्रहणी से कीटों की मास्टरनी बनने तक का सफर


अपने पति जोगेंद्र को लेपटॉप पर कीटों के बारे में जानकारी देती कमलेश।
महिला पाठशाला के दौरान महिलाओं को कीटों के बारे में जानकारी देती कमलेश।
कीट साक्षरता के अग्रदूत डॉ. सुरेंद्र दलाल के नेतृत्व में थाली को जहरमुक्त बनाने के लिए निडाना गांव में वर्ष 2008 में पुरुष किसानों की पाठशाला की शुरूआत की गई थी। इसके बाद महिलाओं को भी इस मुहिम से जोडऩे के लिए वर्ष 2010 में निडाना गांव में ही एक महिला किसान खेत पाठशाला की भी शुरूआत की गई। पड़ोस के खेत में चल रही महिला किसान पाठशाला को देखकर कमलेश ने भी इस पाठशाला में जाना शुरू कर दिया। कमलेश पाठशाला से जो भी सीखती वह घर आकर परिवार के सदस्यों को समझाती और फसल में कीटनाशकों का छिड़काव नहीं करने का सुझाव देती लेकिन परिवार के सदस्य उसकी बात मानने की बजाये उल्टा उसे पाठशाला में जाने से रोकने के लिए दबाव डालने लगे। कमलेश ने बताया कि उसका पति जोगेंद्र फसल में काफी मात्रा में कीटनाशकों का प्रयोग करता था और उसे पाठशाला में जाने से भी रोकता था लेकिन कमलेश अपने पति जोगेंद्र को कहती कि पहले वह फसल में कीटनाशकों का छिड़काव बंद कर दे तो वह भी महिला किसान खेत पाठशाला में जाना छोड़ देगी। इसी बात को लेकर कई बार दोनों में झगड़ा भी हो जाता। लगभग दो साल तक यही क्रम जारी रहा। वर्ष 2012 में डॉ. सुरेंद्र दलाल ने जोगेंद्र के खेत में एक पुरुष किसान खेत पाठशाला की शुरूआत की और जोगेंद्र को भी इस पाठशाला में आने के लिए तैयार किया। जब जोगेंद्र ने खुद किसान खेत पाठशाला में जाकर कीटों के बारे में जानकारी हासिल की तो जोगेंद्र को भी अपनी पत्नी कमलेश की बातों पर यकीन होने लगा। इसके बाद जोगेंद्र ने फसल में कीटनाशकों का प्रयोग बिल्कुल बंद कर दिया। अब 2014 में भी जोगेंद्र के खेत में एक नहीं बल्कि दो-दो पाठशालाएं चल रही हैं। एक पाठशाला पुरुषों की तो दूसरी पाठशाला महिलाओं की दोनों ही पाठशालाओं में दोनों पति-पत्नी भाग लेते हैं। इतना ही नहीं पाठशाला में किसानों के उठने-बैठने तथा पीने के पानी व अल्पाहार की व्यवस्था भी कमलेश व उसका पति जोगेंद्र खुद ही करते हैं। पाठशाला के सुचारू रूप से संचालन में दोनों का अहम योगदान है। यह कमलेश की दृढ़ इच्छा व मजबूत इरादों का ही परिणाम है कि कभी परिवार के जो लोग उसे पाठशाला में जाने से रोकते थे आज वही लोग उसके पीछे-पीछे पाठशाला में खुद ही जाने लगे हैं। पिछले दो वर्षों से कमलेश के पति जोगेंद्र ने फसल में एक छटांक भी कीटनाशक का प्रयोग नहीं किया है।
कमलेश को सम्मानित करते तत्कालीन उपायुक्त डॉ. युद्धवीर ख्यालिया का फाइल फोटो।


कीटाचार्य महिलाएं निभा रही हैं चिकित्सक व कृषि वैज्ञानिक की भूमिका


जींद के श्रीराम विद्या मंदिर व निडाना के डेफोडिल्स पब्लिक स्कूल के विधार्थियों ने भी किया पाठशाला का भ्रमण

विधालयों ने समझा पौधे और कीटों के आपसी रिश्ते का अर्थ

नरेंद्र कुंडू
जींद।
सामान्य अस्पताल के वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. राजेश भोला ने कहा कि कीट ज्ञान की मुहिम से जुड़ी महिलाएं एक तरह से चिकित्सक व कृषि वैज्ञानिक दोनों की भूमिका निभा रही हैं। क्योंकि एक कीट वैज्ञानिक की तरह कीटों पर शोध करने के साथ-साथ थाली को जहरमुक्त बनाने के लिए पिछले कई वर्षों से लगातार किसानों को जहरमुक्त खेती के लिए जागरूक करने का काम भी कर रही हैं। डॉ. भोला शनिवार को अमर उजाला फाउंडेशन द्वारा निडाना गांव में आयोजित महिला किसान खेत पाठशाला में बतौर मुख्यातिथि शिरकत करने पहुंचे थे। इस अवसर पर पाठशाला में डेफोडिल्स स्कूल की प्राचार्या विजय गिल तथा अखिल भारतीय पर्यावरण एवं स्वास्थ्य मिशन से सुनील कंडेला भी विशेष तौर पर पाठशाला में मौजूद रहे। पाठशाला में शनिवार को डेफोडिल्स पब्लिक स्कूल के साथ-साथ जींद से श्रीराम विद्या मंदिर स्कूल के विद्यार्थी भी कीट ज्ञान अर्जित करने के लिए पहुंचे थे। बच्चों ने बड़ी ही रुचि के साथ पाठशाला में कीटों के क्रियाकलापों के बारे में जानकारी जुटाई। मास्टर ट्रेनर महिला किसानों ने बच्चों के सवालों के जवाब देकर उनकी जिज्ञासा को शांत किया। विद्यार्थी कीटों के बारे में इतनी बारीकी से जानकारी हासिल कर काफी उत्साहित नजर आ रहे थे। पाठशाला के समापन पर सभी अतिथिगणों को अमर उजाला फाउंडेशन की तरफ से स्मृति चिह्न भेंट कर सम्मानित भी किया गया।
पाठशाला में मौजूद विद्यार्थी और महिलाएं।

पिछले सप्ताह की बजाय कम हुई सफेद मक्खी, हरेतेले व चूरड़े की संख्या

फसल का अवलोकन करने के बाद महिला किसानों ने बताया कि पिछले सप्ताह की बजाय इस सप्ताह फसल में सफेद मक्खी, हरे तेले और चूरड़े की संख्या फसल में कम हुई है। इसका कारण यह है कि इस बार इन रस चूसक कीटों को खाने वाले मांसाहारी कीट फसल में काफी हैं। इस समय फसल में इरो नामक मांसाहारी कीट भी आया हुआ है। यह कीट परपेटिया है और सफेद मक्खी के बच्चे के पेट में अपने अंड़े देता है। इरो नामक यह परपेटिया कीट अकेला ही 30 से 40 प्रतिशत सफेद मक्खी को नियंत्रित कर लेता है। वहीं क्राइसोपे का बच्चा भी एक दिन में 100 के लगभग सफेद मक्खी का काम तमाम कर देता है। इनो नामक कीट भी 10 से 15 प्रतिशत सफेद मक्खी को अकेले ही नियंत्रित कर लेती है। महिला किसानों ने बताया कि इस बार उन्होंने एक नए किस्म के कीट के अंड़े भी फसल में देखने को मिले हैं। यह अंड़े किस कीट हैं इसका पता लगाने के लिए इन अंड़ों पर शोध किया जाएगा।

अमर उजाला फाउंडेशन ने शुरू की नई पहल

अमर उजाला फाउंडेशन द्वारा चलाई जा रही महिला किसान खेत पाठशाला में फाउंडेशन की तरफ से १० मास्टर ट्रेनर महिला किसानों को मानदेय दिया गया। मानदेय पाकर महिला किसान काफी खुश नजर आ रही थी। मास्टर ट्रेनर मीनी मलिक, गीता, बिमला, कमलेश, राजवंती, शीला, ईशवंती, अनिता, शांति, सुषमा ने कहा कि पिछले लगभग चार वर्षों से वह अपनी जेब से पैसे खर्च कर पाठशालाएं चला रही हैं लेकिन अमर उजाला फाउंडेशन ने उन्हें मानदेय देकर उनका मान-सम्मान बढ़ाया है और एक नई पहल शुरू की है।

पाठशाला से मिली पौधों और कीट के आपसी रिश्ते की जानकारी

कीटों के बारे में जानकारी हासिल करते विद्यार्थी।
जींद के श्रीराम विद्या मंदिर स्कूल के विद्यार्थी मनप्रीत, नवीन, अजय, शुकर्ण, शुभम, ऋषिता, महक, भावना, ईशिका व प्रेक्षा ने बताया कि वह शहर में ही रहते हैं और उनके अभिभावक शहर में ही नौकरी व अपना व्यवसाय करते हैं। इसलिए उन्हें फसल व कीटों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। उन्होंने पहली बार खेत में जाकर इतनी नजदीक से फसल व कीटों के आपसी रिश्ते के बारे में समझने का अवसर मिला है। यहां आकर उन्हें यह पता चला है कि पौधे किस तरह से अपनी सुरक्षा के लिए समय-समय पर भिन्न-भिन्न किस्म की सुगंध छोड़कर कीटों को बुलाते हैं। यह पाठशाला उनके लिए काफी ज्ञानवर्धक रही है। 
मुख्यातिथि डॉ. राजेश भोला को स्मृति चिह्न भेंट करती महिला किसान।


महिला किसानों को अमर उजाला की तरफ से मानदेय भेंट करते एडीओ डॉ. कमल सैनी।