मंगलवार, 29 मई 2018

जल संस्कृति को बचाना होगा

नरेंद्र कुंडू 
एक तरफ हम जल को देवता मानकर उसकी पूजा करते हैं, तो दूसरी तरफ इस देवता का निरादर करने में किसी भी तरह पीछे नहीं रहते हैं। कारण व्यत्तिफ़ हो या बाजार, हर कोई अपनी-अपनी तरह से इस दोहन में शामिल है। आज जरूरत है कि हम जल के प्रति अपने संस्कार और संस्कृति को पुनर्जीवित करें। पानी के बिना मनुष्य जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। जन्म से लेकर मृत्यु तक पानी का हमारे जीवन में बहुत बड़ा स्थान है बल्कि कह सकते हैं कि पानी ही उसकी धुरी है। हमारे शास्त्रें में कहा गया है कि जल में ही सारे देवता रहते हैं। इसीलिये जब कोई धार्मिक अनुष्ठान होता है तो सबसे पहले कलश यात्र निकलती है। हम किसी पवित्र सरोवर या जलाशय में जाते हैं और वहां से अपने कलश में जल भरकर ले आते हैं। चूंकि जल में हमारे सभी देवता बसते हैं इसलिये हम उसकी पूजा करते हैं और फिर उसी जलाशय में उसका विसर्जन कर देते हैं। इस तरह व्यष्टि को समष्टि में मिला देते हैं। ‘अमरकोश’ में जल के कई नाम गिनाये गये हैं। उसमें जल के लिये एक नाम जीवन भी है। जीवन जलम। अब सवाल यह है कि जल जो हमारी संस्कृति में इतना अहम स्थान रऽता रहा है, उसकी इतनी दुर्दशा क्यों हो रही है? कारण दैवीय और आसुरी शत्तिफ़यों के संघर्ष में छिपा है। यह संघर्ष सनातन है। कभी एक पक्ष की शत्तिफ़ बढ़ती है, कभी दूसरे की। जो जल संरक्षण के लोग हैं वे दैवीय शत्तिफ़ के लोग हैं। दूसरी तरफ आसुरी शत्तिफ़यां हैं जो जल को नष्ट करने का स्वाभाविक रूप से प्रयास करती रहती हैं। जब हम पूजा में बैठते हैं तो सबसे पहले कलश में जल की उपासना करते हैं कि वे कलश में आ कर विराजमान हों। इस समय हम एक मंत्र पढ़ते हैं जिसमें सभी नदियों, जलाशय और समुद्र का आ“वान करते हैं कि वे इस कलश में विराजें और देवी पूजा में सहायक हों। जब हम ऐसा करते हैं तो हमें इस बात का भी एहसास होता है कि देवी पूजा के लिये जिस जल का हम आ“वान कर रहे हैं उसे प्रदूषणमुत्तफ़ बनाना भी हमारा कर्त्तव्य है। अन्यथा प्रदूषित पानी कलश में आएगा और हमें उसी से देवी-देवताओं की पूजा करनी पड़ेगी। हम मानते हैं कि जल में दो प्रकार की शत्तिफ़ है। एक तो वह भौतिक मैल को धोता है। दूसरा उसमें आधि भौतिक मैल धोने की भी शत्तिफ़ है। यदि जल संरक्षण के उपाय शीघ्र न किये गये तो जल संस्कृति का भविष्य खतरे में घिरता नजर आ रहा है। 

शनिवार, 28 अप्रैल 2018

दोहरी नीति का शिकार हो रही हिन्दी

नरेन्द्र कुंडू 
जब से मानव अस्तित्व में आया तब से ही भाषा का उपयोग कर रहा है चाहे वह ध्वनि के रूप में हो या सांकेतिक रूप में। भाषा हमारे लिए बोलचाल व संप्रेषण का माध्यम होती है। भाषा राष्ट्र की एकता, अखंडता तथा विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। देश में प्रचलित विविध भाषाएं व बोलियां हमारी संस्कृति, उदात्त परंपराओं, उत्कृष्ट ज्ञान एवं विपुल साहित्य को अक्षुष्ण बनाये रखने के साथ ही वैचारिक नवसृजन हेतु भी परम आवश्यक है। विविध भाषाओं में उपलब्ध साहित्य की अपेक्षा कई गुना अधिक ज्ञान गीतों, लोकोत्तिफ़यों तथा लोक कथाओं की मौखिक परंपरा के रूप में होता है। यदि राष्ट्र को सशक्त बनाना है तो एक भाषा होनी चाहिए। प्रत्येक विकसित तथा स्वाभिमानी देश की अपनी एक भाषा अवश्य होती है। किसी भी देश की राष्ट्रभाषा उसे ही बनाया जाता है जो उस देश में व्यापक रूप में फैली होती है। हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी भारत के ज्यादातर राज्यों में प्रमुख रूप से बोली जाती है। हिन्दी भाषा के विकास में संतों, महात्माओं तथा उपदेशकों का योगदान भी कम नहीं आंका जा सकता। क्योंकि वह आम जनता के अत्यंत निकट होते हैं। इनका जनता पर बहुत बड़ा प्रभाव होता है। हमारा फिल्म उद्योग तथा संगीत हिन्दी भाषा के आधार पर ही टिका हुआ है। 4 सितम्बर 1949 को संविधान की भाषा समिति ने हिंदी को राजभाषा के पद पर आसीन किया क्योंकि भारत की बहुसंख्यक जनता द्वारा हिन्दी भाषा का प्रयोग किया जा रहा था। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान हिन्दी भाषा में प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं ने देश को आजाद करने में महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई तथा भारतीयों को एक सूत्र में बांधे रखा। स्वतंत्रता के पश्चात् भले ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा व राजभाषा का दर्जा दिया गया लेकिन भाषा के प्रचार व प्रसार के लिए सरकार द्वारा सराहनीय कदम नहीं उठाए गए। अंग्रेजी भाषा का प्रयोग अनवरत चलता रहा। भले ही आज विश्व के सभी महत्वपूर्ण देशों के विश्वविद्यालयों में हिन्दी का अध्ययन-अध्यापन हो रहा है। परन्तु विडंबना यह है कि विश्व में अपनी अच्छी स्थिति के बावजूद हिन्दी भाषा अपने ही घर में उपेक्षित जिंदगी जी रही है। आज विविध भारतीय भाषाओं व बोलियों के चलन तथा उपयोग में आ रही कमी, उनके शब्दों का विलोपन व विदेशी भाषाओं के शब्दों से प्रतिस्थापन एक गम्भीर चुनौती बन कर उभर रहा है। अपने देश में अंग्रेजी बोलने वालों को तेज-तर्रा, बुद्धिमान व हिन्दी बोलने वालों को अनपढ़, गवार जताने की परम्परा रही है। राजनेताओं द्वारा हिन्दी को लेकर राजनीति की जा रही है। जब भी हिन्दी दिवस आता है, हिन्दी को लेकर लम्बे-लम्बे वक्तव्य देकर हिन्दी पखवाड़े का आयोजन कर इतिश्री कर ली जाती है। हिन्दी हमारी दोहरी नीति का शिकार हो चुकी है। यही कारण है कि हिन्दी आज तक व्यावहारिक दृष्टि से राष्ट्र भाषा नहीं बन पाई है। देश की विविध भाषाओं तथा बोलियों के संरक्षण और संवर्द्धन के लिये सरकारों, नीति निर्धारकों, स्वैच्छिक संगठनों व समस्त समाज को सभी संभव प्रयास करने चाहियें।

रविवार, 4 मार्च 2018

‘विद्यार्थियों में बढ़ता तनाव’

नरेंद्र कुंडू 
प्रसिद्ध चिंतक अरस्तू ने कहा था कि आप मुझे 100 अच्छी माताएं दें तो मैं तुम्हें अच्छा राष्ट्र दूंगा। मां के हाथों में राष्ट्र निर्माण की कुंजी होती है किंतु आज ऐसी माताओं व सोच की कमी महसूस हो रही है। जीवन स्तर बढ़ने के साथ-साथ भौतिक प्रतिस्पर्धा भी अपने चरम पर है, जिसका दुष्प्रभाव तनाव युत्तफ़ जीवनशैली से आत्महत्या का बढ़ता चलन देखने में आ रहा है। बड़े दुःख  विषय है आज विद्यार्थियों में लगन व मेहनत से विद्या ग्रहण करने की प्रवृत्ति लुप्त होती जा रही है। वे जीवन के हर क्षेत्र में शॉर्टकट मार्ग अपनाना चाहते हैं और असफल रहने पर गलत कदम उठा लेते हैं। आजकल अभिभावक भी बच्चों पर पढ़ाई और करियर का अनावश्यक दबाव बनाते हैं। वे ये समझना ही नहीं चाहते की प्रत्येक बच्चे की बौद्धिक क्षमता भिन्न होती है जिसके चलते हर विद्यार्थी कक्षा में प्रथम नहीं आ सकता। बाल्यकाल से ही बच्चों को यह शिक्षा दी जानी चाहिए कि असफलता ही सफलता की सबसे बड़ी कुंजी है। बच्चों में आत्मविश्वास की कमी भी एक बहुत बड़ा कारक है। आज खुशहाली के मायने बदल रहे हैं अभिभावक अपने बच्चाें को हर क्षेत्र में अव्वल देऽने व सामाजिक दिखवे के चलते उन्हें मार्ग से भटका रहे हैं। वास्तविकता यह है कि गरीब बच्चे फिर भी संघर्षपूर्ण जीवन में मेहनत व हौंसले के बलबूते अपनी मंजिल पा ही लेते हैं। किन्तु अक्सर धन-वैभव से भरे घरों में अधिक तनाव का माहौल होता है और एक-दूसरे से अधिक अपेक्षाएं रखी जाती हैं। शहरों की भागदौड़ भरी जिंदगी में बच्चे वक्त से पहले परिपक्व हो रहे हैं। इसके फलस्वरूप वे अपने निर्णय स्वयं लेना चाहते हैं और अपने द्वारा लिए गए निर्णयों के अनुसार अपेक्षित परिणाम प्राप्त न होने पर आत्महत्या का निर्णय ले लेते हैं। आज परिवार अपने मौलिक स्वरूप से भटक कर आधुनिकतावाद की बलिवेदी पर होम हो रहे हैं। अभिभावकों को समझना होगा कि बच्चे मशीन या रोबोट नहीं है। बच्चाें को बचपन से अच्छे संस्कार दिये जाने चाहिएं ताकि वे अपनी मंजिल खुद चुनें किन्तु आत्मविश्वास न खोएं। आज की शिक्षा बच्चो को डॉक्टर, इंजीनियर या अफसर तो बना देती है परंतु वह चरित्रवान इंसान बने, इसकी उपेक्षा करती है। एक पक्षी को ऊंची उड़ान भरने के लिए दो सशक्त पंखों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार मनुष्य को भी जीवन के उच्च लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दोनों प्रकार की शिक्षा अपने बच्चों को देनी होगी। सांसारिक शिक्षा उसे जीविका योग्य और आध्यात्मिक शिक्षा उसके जीवन को मूल्यवान बनाएगी।